राजा जयकेशी की पुत्री राजकुमारी मयणल्ला को सोलंकी वंश के राजा कर्णदेव की फोटो देख कर ही प्यार
हो गया था, लेकिन कर्णदेव ने उस से विवाह करने को मना कर दिया था. आखिर मयणल्ला ने ऐसे
क्या क्या जतन किए कि राजा कर्णदेव को उस से विवाह करने के लिए मजबूर होना पड़ा?

दक्षिण भारत के उस समय के चंद्रपुर के कदंब वंश के एक राजा थे जयकेशी. उन की मयणल्ला नामक
एक पुत्री थी. गुजरात में सोलंकी वंश के राजा कर्णदेव प्रथम का राज्य था. कर्णदेव भी अपने पूर्वज
मूलराज प्रथम, भीमदेव प्रथम की तरह प्रतापी राजा था. उस के समय में भी गुजरात की ख्याति दक्षिण
तक फैली हुई थी. वहां स्थित सोमनाथ का शिवमंदिर प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध था.

भारत भर के श्रद्धालु सोमनाथ मंदिर का दर्शन करने आते थे. राजकुमारी मयणल्ला उन यात्रियों से
सोमनाथ मंदिर की भव्यता और राजा कर्णदेव के स्वरूप व ख्याति की बातें सुना करती थी. राजा कर्णदेव
की एक तसवीर देख कर राजकुमारी मयणल्ला उस पर मोहित हो गई और उसे अपने पति रूप में पाने
की ठान ली.

राजा कर्णदेव के शासन काल से पहले से ही सोमनाथ मंदिर के दर्शन के लिए आने वाले यात्रियों से यात्री
कर लिया जाता था. राजकुमारी मयणल्ला नहीं चाहती थी कि भक्तों से यह कर लिया जाए.
गुजरात को और अधिक शक्तिशाली, समृद्ध बना कर इस यात्री कर को समाप्त करने की चाह उस में
जागी.

यह तभी संभव था, जब वह गुजरात की साम्राज्ञी बने. वह एक शक्तिशाली और सर्वगुणसंपन्न भावी राजा
की माता बने. राजकुमारी ने अपने पिता राजा जयकेशी के सामने विवेक व विनयपूर्वक अपनी इच्छा
व्यक्त की.

अपनी पुत्री के गुण संस्कार राजा को पता थे. राजा ने पुत्री की इच्छापूर्ति के लिए एवं राजकीय संबंध
सुदृढ़ बनाने की इच्छा से अपनी सहमति दे दी.

पिता जयकेशी से आशीर्वाद ले कर राजकुमारी मयणल्ला अपनी कुछ दासियों, सेवक और कुछ अंगरक्षकों
को ले कर गुजरात की राजधानी पाटण की ओर चल पड़ी. उत्तरदक्षिण की सीमा, नर्मदा नदी को पार कर
के राजकुमारी का कारवां कुछ महीने बाद पाटण के पास सरस्वती नदी के किनारे आ पहुंचा.

पाटण नगर के पास दुर्लभ तालाब के पाए सुरम्य उद्यान में राजकुमारी के काफिले ने पड़ाव डाला.
उद्यान के बगल में ही कुछ शामियाने लगाए गए. उद्यान सुंदर और सुरम्य था, जो हरी घास, रंगबिरंगे
फूलों के पौधों, पेड़, लताओं से मनोहारी था. उद्यान में मोर, कोयल और तरहतरह के परिंदे किलकिलाहट
कर रहे थे.

चांदनी रात में उस उद्यान की परछाई दुर्लभ सरोवर (झील) में जो दिखती थी, वह झील की शोभा में
चारचांद लगा देती थी. उस उद्यान में राजकुमारी मयणल्ला अपनी मनोकामना पूर्ण होने की प्रतीक्षा में
दिन बिता रही थी.

राजा भीमदेव प्रथम की महारानी और राजा कर्णदेव की माता रानी उदयमति शिल्प और स्थापत्य की
बेजोड़ बावड़ी का निर्माण करवा रही थीं, जो उस उद्यान और झील के पास ही थी. राजमाता उदयमति उद्यान की सैर करने व बावड़ी का निरीक्षण करने समयसमय पर आया करती थीं.

उस उद्यान के पास लगे शामियानों को राजमाता उदयमति ने देखा. दासी को भेज कर पता लगवाया तो
पता चला कि यह शिविर चंद्रपुर की राजकुमारी मयणल्ला का है. दक्षिण में चंद्रपुरी का राजा जयकेशी भी एक प्रतापी राजा था. राजमाता उदयमति राजकुमारी के शिविर में उस से मिलने गईं. राजकुमारी मयणल्ला ने बड़े आदर के साथ राजमाता का सत्कार व अभिवादन किया. राजमाता नायकेशी के विवेक, विनय और शिष्टाचार से बेहद प्रभावित हुईं.

राजमाता ने राजकुमारी का चंद्रपुर से सीधे ही पाटण आने का प्रयोजन पूछा. राजकुमारी ने बिना संकोच
किए व विनयपूर्वक अपनी कामना का जिक्र किया.

राजकुमारी मयणल्ला ने राजमाता से निवेदन किया कि मैं महाराजा कर्णदेव से विवाह कर के आप की
पुत्रवधू बनना चाहती हूं. महाराज से एक वीर पुत्र प्राप्त करने के बाद मैं उस पुत्र को वीर, अजेय, योद्धा, सद्ïगुणी, सर्वगुणसंपन्न, संस्कारी, न्यायी, नीतिवान सुशासक बनाना चाहती हूं. मुझे लगता है कि आप के प्रतापी पुत्र महाराज कर्णदेव से एक प्रतापी पुत्र पा कर ही मेरी यह इच्छा पूरी हो सकती है.

राजा कर्णदेव भी उद्यान और दुर्लभ सरोवर की सैर करने और निर्माणाधीन बावड़ी का निरीक्षण करने के
लिए वहां आया करते थे. कर्णदेव ने उद्यान के बगल में ही लगे दक्षिण के चंद्रपुर राज्य के शिविर को
देख कर अपने सिपाही भेज कर जांच करवाई कि यह शिविर यहां क्यों लगाया गया है और शिविर में
कौन है.

सिपाहियों ने तलाश कर के राजा कर्णदेव को बताया कि यह शिविर चंद्रपुर के राज्य का है और शिविर में
वहां के राजा जयकेशी की पुत्री राजकुमारी मयणल्ला है. राजा कर्णदेव ने अपनी विश्वासप्राप्त सेविकाओं को राजकुमारी के शिविर में भेज कर यह पता लगाया कि यह राज परिवार के किसी पुरुष को साथ लिए बिना यहां अकेली ही क्यों आई है.

राजकुमारी ने उन सेविकाओं को बताया कि वह राजा कर्णदेव के साथ स्वयं अपने विवाह हेतु आई है. यह
पाटण और चंद्रपुर दोनों राज्यों का वैवाहिक संबंध स्थापित कर दोनों राज्यों के राजनैतिक संबंधों को
सुदृढ़ करना चाहती है. वह राजा कर्णदेव के रूप और कीर्ति से प्रभावित हो कर यहां स्वयं ही आई है.
उसे मालूम है कि पाटण में किसी भी नारी को कोई भय नहीं है, उस के मानसम्मान में कोई खोट नहीं
है. इसलिए वह अपनी सेविकाओं और कुछ सेवकों को साथ ले कर अकेली ही आई है.

वैसे तो राजकुमारी मयणल्ला कुशल बुद्धिशाली, राजनैतिक समझ वाली, प्रभावशाली और महत्त्वाकांक्षी थी,
लेकिन दक्षिण की होने के कारण स्वाभाविक रूप से कुछ सांवले रंग की थी. जबकि राजा कर्णदेव कामदेव
के समान बहुत स्वरूपवान था. जिस से उस ने मयणल्ला के प्रस्ताव को अस्वीकार किया और उस में
कोई रुचि नहीं दिखाई.

समय बीतता गया. राजा कर्णदेव अपने निर्णय पर दृढ़ था. उस ने राजकुमारी के प्रति बेरुखी ही दिखाई.
इधर राजकुमारी भी अपने निर्णय पर दृढ़ थी कि वह विवाह तो कर्णदेव से ही करेगी. आखिर उस ने
राजमाता उदयमति की सहायता लेने का निश्चय किया.

जब राजमाता उद्यान की सैर करने आईं तो राजकुमारी ने अपनी विश्वस्त सेविका को राजमाता के पास
भेज कर अपने मिलने की अनुमति मांगी. राजमाता भी राजकुमारी की बहुत इज्जत करती थीं, वह स्वयं
राजकुमारी के शिविर में उस से मिलने आईं.

राजकुमारी ने राजमाता के चरण छू कर उन का अभिवादन किया. राजमाता के बैठने के लिए उन के
योग्य आसन दिया. राजमाता राजकुमारी की इच्छा जानती ही थीं, फिर भी उन्होंने राजकुमारी के फिर से
मिलने का कारण जानना चाहा.

राजकुमारी ने राजमाता उदयमति को अपनी मनोकामना पुन: व्यक्त करते हुए राजमाता से प्रार्थना की
कि वह विवाह करेगी तो राजा कर्णदेव से ही करेगी, वरना वह अग्निस्नान कर लेगी. यह उस की दृढ़
प्रतिज्ञा है. क्षत्रिय कन्या एक बार जिसे अपना पति मान लेती है तो वह उस से ही विवाह करती है, दूसरे
तो उस के लिए भाई और पिता समान ही होते हैं.

राजमाता से उस ने प्रार्थना की कि मैं अपनी प्रतिज्ञा आप की सहायता से ही पूर्ण कर सकती हूं. आप
मुझे जीवित रखना चाहती हैं और पाटण व चंद्रपुर को निकट ला कर शक्तिशाली बनाना चाहती हैं तो
मेरी पूरी सहायता कीजिए.

राजमाता उदयमति जूनागढ़ (सोरठ) के चुड़ासमा राजवंश की थीं. वह गहरी राजनीतिक सूझ वाली थीं. वह
स्वयं भी महत्त्वाकांक्षी थीं. वह चाहती थीं कि उन का पुत्र भी अपने पुरखों की तरह शक्तिशाली, सुशासक
व प्रसिद्ध राजा बने.

उन्होंने राजकुमारी मयणल्ला को विश्वास दिलाया कि वह अवश्य उस की सहायता करेगी. यदि राजा
कर्णदेव मयणल्ला के साथ विवाह का प्रस्ताव अस्वीकार करेगा तो वह स्वयं भी राजकुमारी के साथ
अग्निस्नान करेंगी. राजमाता राजकुमारी को यह दृढ़विश्वास दिला कर राजमहल चली गईं.

राजमहल आ कर राजमाता ने अपने राज्य के महामात्य मुंजाल मेहता से राजा कर्णदेव और मयणल्ला
देवी के विवाह के संबंध में परामर्श किया. उस ने भी राजमाता के विचार का समर्थन किया. महामात्य
मुंजाल बड़ा मुत्सदी (मुगलकाल का सरकारी पद) था.

उस ने राजा कर्णदेव को मयणल्ला के साथ विवाह करने के लिए राजी कर लिया. आखिर नारी की दृढ़ शक्ति, दृढ प्रतिज्ञा के आगे राजा को झुकना पड़ा, क्योंकि उन की प्रतिज्ञा राजा और राज्य के हित में थी. राजा कर्णदेव और मयणल्ला का विवाह संपन्न हुआ. अब महारानी मयणल्ला महारानी मीनल देवी के नाम से बुलाई जाने लगी.

समय बीतते महारानी मीनल देवी ने शुभ मुहूर्त में एक पुत्र को जन्म दिया, जिस का नाम जयसिंह रखा
गया, जो बड़ा प्रतापी राजा सिद्ध हुआ. गुजरात की लोकभाषा में वह 'सधराजेसंगÓ के नाम से प्रसिद्ध
हुआ.

बाल राजकुमार जयसिंह देव एक दिन अपने बाल मित्रों के साथ खेलखेल में ही राज सिंहासन पर बैठ
गया. ज्योतिषियों ने बताया कि यह शुभ मुहूर्त है, जिस से राज्य की उन्नति होगी. इसलिए राजा कर्णदेव
ने बाल राजकुमार का उसी मुहूर्त में राज्याभिषेक कर दिया.

अब पाटण-गुजरात का राजा नाबालिग उम्र में ही जयसिंह देव हुआ. इस के बाद कुछ ही वर्ष में राजा
कर्णदेव ने देह त्याग दी. अब राज्य की धुरी राजमाता मीनल देवी ने संभाल ली. वह बाल राजा जयसिंह
देव के नाम से महामात्य शांतनु और मुंजाल मेहता की सहायता से शासन करने लगी.

राजमाता मीनलदेवी ने बाल राजा जयसिंह को मल्ल विद्या, गज विद्या, शस्त्र विद्या तथा नीति शास्त्र
और सुशासन प्रणाली में पारंगत बनने की शिक्षा दिलाई. राज्य विस्तार के साथसाथ सुशासन करना,
प्रजाहित का ध्यान रखना, लोक कल्याण के कार्य करना, प्रजा के दुख की जानकारी लेना जैसे आदर्श राजा
के गुणों की शिक्षा दी थी.

आदर्श पर चलने के लिए और सुशासन देने के लिए राजा को स्वयं बलवान बनना चाहिए और राज्य में
छोटीबड़ी, अच्छीबुरी घटनाओं की भेष बदल कर, छिपे भेष में जानकारी लेनी चाहिए.

इस प्रकार राजमाता मीनल देवी ने अपने बाल राजा को आदर्श राजा के सभी सुसंस्कार दिए और इसी
कारण राजा जयसिंह हर कार्य को, जो उस ने निश्चित किया या इरादा रखा, उसे सिद्ध कर के दिखाया.
उस का शासन काल गुजरात का स्वर्ण युग रहा.

बाल राजा जयसिंह की युवावस्था प्राप्त होने तक शासन चलाना इतना आसान नहीं था. कर्णदेव की मृत्यु
के बाद उस के सौतेले भाई क्षेमराज के पुत्र देव प्रसाद ने जयसिंह को नाबालिग समझ कर राजकार्य में
हस्तक्षेप करने का प्रयास किया. लेकिन राजमाता मीनल देवी ने मंत्री शांतनु की सहायता से उसे विफल
कर दिया.

राजमाता के प्रभाव के कारण अपनी असफलता पर देव प्रसाद ने अग्नि स्नान कर लिया. देव प्रसाद के
नाबालिग पुत्र त्रिभुवन पाल को राजमाता ने अपने महल में बुला लिया और उस का लालनपालन किया.
जयसिंह उसे अपने सगे भाई की तरह चाहता था.

राजा कर्णदेव की मृत्यु के बाद उस का मामा मदनपाल जो जूनागढ़ का था, राजधानी पाटण में ही रहता
था, स्वच्छंदी हो गया. राजा जयसिंह किशोर होने के कारण मदनपाल राजकाज में दखल करता था. प्रजा
को परेशान करता था और निरपराधी को भी दंडित करता था. उस की ऐसी हरकतें कुछ ज्यादा बढ़ गई
थीं.

एक बार पाटण के उत्तम वैद्य को अपना इलाज कराने के बहाने अपने निवास पर बुला कर कैद कर
लिया और 32 हजार मोहरें ले कर उस को मुक्त किया. जब युवा राजा जयसिंह को इस की खबर मिली
तो राजमाता मीनल देवी से सलाह कर शांतनु मंत्री की सहायता से मदनपाल की हत्या करवा दी.

राजमाता मीनल देवी और राजा जयसिंह अपने सगेसंबंधियों से अधिक अपनी प्रजा का हित देखते थे.
गुजरात राज्य की पश्चिमी सीमा पर अरब सागर के किनारे प्रसिद्ध सोमनाथ का मंदिर है.

राजमाता ने कई लोगों को मंदिर के दर्शन किए बिना निराश हो कर वापस लौटते देखा. उन से पूछा तो
पता चला कि वे यात्री कर न चुका पाने के कारण बिना दर्शन ही वापस लौट रहे हैं.

राजमाता ने सोचा कि मेरे राज्य की प्रजा यात्री कर न चुका सकने के कारण बिना दर्शन किए निराश हो कर वापस जा रही है तो मैं कैसे मंदिर के दर्शन कर सकती हूं. मैं राजमाता हूं तो क्या हुआ, भगवान के सामने तो राजा और प्रजा दोनों ही समान हैं.

राजकार्य की व्यवस्था कर के कुछ ही दिनों बाद राजा जयसिंह देव भी अपने कुछ सैनिकों को साथ ले
कर सोमनाथ की यात्रा के लिए निकल पड़ा, जब वह सोमनाथ के निकट पहुंचा तो उस ने राजमाता के
काफिले का शिविर देखा. शिविर में जा कर राजा ने राजमाता से भेंट की तो उसे मालूम हुआ कि
राजमाता सोमनाथ मंदिर में दर्शन किए बिना ही वापस पाटण लौट रही है.

राजा के पूछने पर राजमाता ने कहा कि जब अपने राज्य की प्रजा और अन्य राज्यों की प्रजा बिना यात्री
कर दिए मंदिर में दर्शन नहीं कर सकती तो मैं कैसे दर्शन कर सकती हूं. तुम यदि सभी के लिए यात्री
कर समाप्त कर दो, तभी मैं भी दर्शन करूंगी.

पाटण राज्य की आय में सोमनाथ के यात्री कर का बहुत बड़ा योगदान था, फिर भी राजमाता के अनुरोध
पर राजा जयसिंह देव ने यात्री कर समाप्त कर दिया. यह राजमाता मीनल देवी के दिल में प्रजा के प्रति
प्रेम और न्याय को दर्शाता है. ऐसे तो राजमाता मीनल देवी ने कई तालाब और मंदिरों का निर्माण
करवाया था, लेकिन धोलका का मलाव तालाब राजमाता की न्यायप्रियता का उत्तम उदाहरण है.

धोलका (गुजरात) के पास राजमाता एक तटबंधी तालाब का निर्माण करवा रही थी. तालाब गोलाकार
बनाना था. लेकिन उस तालाब की सीमा में एक गणिका का छोटा सा निवास स्थान आता था.
राजमाता ने निवास स्थान बदलने के लिए गणिका को मुंहमांगी कीमत देने का औफर दिया, लेकिन
गणिका वह जमीन देना नहीं चाहती थी.

राज्य जबरदस्ती भी वह जमीन ले सकता था, लेकिन राजा जयसिंह देव ने ऐसा नहीं किया और तालाब की उतनी गोलाई छोड़ दी, यह थी राजमाता की न्यायप्रियता. आज भी वह तालाब मौजूद है. और कहा जाता है कि न्याय देखना हो तो धोलका का मलाव तालाब देखो.

एक जनश्रुति के अनुसार जूनागढ़ के राजा राव नवगण को राजा जयसिंह देव ने युद्ध में पराजित कर
दिया था, उसे मुंह में तिनका लेने को मजबूर कर दिया था. इसलिए राजा नवगण ने पाटण के द्वार को
तोडऩे की प्रतिज्ञा की थी. वह तो अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर सका, लेकिन उस के बाद उस के पुत्र राजा
राव खेंगार ने पाटण का द्वार तोड़ा था.

उस समय राजा जयसिंह देव मालवा गया हुआ था. अपने साथ राव खेंगार उस कन्या को भी ले गया,
जिस के साथ सिद्धराज जयसिंह देव का विवाह होने वाला था. हालांकि वह कन्या और राव खेंगार
एकदूसरे के साथ प्रणय संबंध में बंधे थे. जूनागढ़ आ कर राव खेंगार ने उस कन्या से विवाह कर लिया,
जिस का नाम सोनल देवी था. जो जनश्रुति में राणक देवड़ी के नाम से पुकारी जाने लगी.

जयसिंह को जब मालवा से लौटने पर समाचार मिला तो वह गुस्से में लालपीला हो गया. राजा जयसिंह
ने जूनागढ़ पर आक्रमण किया. लंबे समय तक के घेरे के बाद जयसिंह दुर्ग में प्रवेश करने में सफल
हुआ. राजा राव खेंगार और राजा जयसिंह के घमासान युद्ध में राव खेंगार मारा गया. जयसिंह देव
राणक देवड़ी को ले कर पाटण आने को निकल पड़ा.

पाटण में राजमाता मीनल देवी को यह खबर मिली तो राजमाता उसे रोकने के लिए कुछ सैनिकों को ले
कर जूनागढ़ की ओर निकल पड़ी, क्योंकि वह जानती थी कि राणक देवी महासती है और यदि वह राजा
जयसिंह को श्राप देगी तो महाअनर्थ होगा. बढवाण में दोनों काफिले मिले.

राजमाता ने राणक देवी पर जबरदस्ती न करने के लिए जयसिंह को मना लिया. राजमाता मीनल देवी ने
राणक देवी से मिल कर उस की इच्छा जानी. राणक देवी ने अपने पति राव खेंगार का सिर अपनी गोद
में ले कर सती होने को कहा. राजमाता ने राव खेंगार का सिर मंगवाया. राणक देवी अपने पति का सिर
ले कर बढवाण के पास भोगावो नदी के तट पर सती हुई. उस का मंदिर आज भी वहां मौजूद है.

राजमाता मीनल देवी और उस के पुत्र सिद्धराज जयसिंह देव की न्यायप्रियता की अनेक कथाएं गुजरात
के लोक साहित्य में पढऩे और सुनने में आती हैं. माता मीनल देवी ने जयसिंह में महान योद्धा, कुशल
सेनापति, सर्वधर्म समभाव, न्यायप्रियता और प्रजा हितैषी के गुण कूटकूट कर भरे थे.

राज्यारोहण से ले कर आने वाली चुनौतियां माता और मंत्रियों की सहायता से सफलतापूर्वक पार कीं, जिस
से वह गुजरात का महान प्रतापी राजा सिद्ध हुआ और उस का राज्यकाल गुजरात का स्वर्ण युग
कहलाया. राजकुमारी मयणल्ला ने जो प्रतिज्ञा की थी. वह कर्णदेव से विवाह कर पूरी की.
कीवर्ड (स्टोरी)

ऐतिहासिक कहानी, राजकुमारी मयणल्ला, राजा जयकेशी, कर्णदेव, सोलंकी वंश, कदंब वंश, जयसिंह देव,
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