खतरे में हैं हाथी

इंसान अपने स्वार्थ के लिए हाथियों का शिकार करना बंद नहीं कर रहा है. तो वहीं गुस्सैल हाथियों की चपेट में आकर हर साल अनेक लोग अपनी जान से हाथ धो रहे हैं. आखिर इंसान और हाथियों के बीच क्यों बढ़ रहा है टकराव? और इस दिशा में सरकार ने उठाया है क्या कदम?

साइलेंट वैली नैशनल पार्क, केरल में 27 मई, 2020 को मादा हाथी की दर्दनाक मौत की दास्तान आप को जरूर याद होगी. 15 वर्ष की गर्भवती मादा हाथी को किसी सिरफिरे ने पटाखों से भरा अनानास खिला दिया था. पटाखे मुंह में फटने से उस का जबड़ा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था. इस वजह से 2 सप्ताह तक वह न तो कुछ खा सकी और न पानी पी सकी. 

मादा हाथी को हुए असहनीय दर्द का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसे इतनी जलन और दर्द हुआ कि वह कई दिनों तक झील में खड़ी रही. आखिरकार, कमजोरी से वह झील में गिरी और डूबने से उस की और गर्भ में पल रहे बच्चे की दर्दनाक मौत हो गई.

इस घटना के बाद वन्यजीव संरक्षण के लिए काम कर रहे संगठनों के लोगों ने काफी होहल्ला मचाया और वक्त गुजरते ही यह किस्सा भी लोगों की जुबान से गायब हो गया. भारत में हाथियों और इंसानों के बीच खूनी संघर्ष आज भी जारी है. दुनिया के कई देशों में हाथी अब भी संकट में हैं, भारत में पिछले 8 सालों में हाथियों की संख्या में इजाफा तो हुआ है, मगर हाथियों की मौत भी कम नहीं हुई है.

वल्र्ड एनिमल प्रोटेक्शन संस्था के अनुसार इंसानों और हाथियों के बीच संघर्ष की वजह से भारत में औसतन रोजाना एक व्यक्ति की मौत होती है, जिस में अधिकांश किसान होते हैं. पिछले 6 सालों में हाथियों और इंसानों के बीच टकराव में जितनी मौतें हुई हैं, उन में से 48 फीसदी केवल ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड में हुई हैं. अगर असम, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु को भी इस में जोड़ दें तो इन 6 राज्यों में मरने वालों की संख्या 85 प्रतिशत है. 

इन राज्यों के किसानों की शिकायत रहती है कि जंगली हाथी उन की फसलें बरबाद कर रहे हैं, इस से उन्हें भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ रहा है. इन राज्यों के लोगों का कहना है कि आबादी वाले क्षेत्रों में जंगली हाथियों की घुसपैठ लगातार बढ़ रही है.

 

 

केंद्रीय वन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हाथी और इंसानों के टकराव में हर साल 400-500 लोगों की मौत होती है, जबकि 100 हाथियों को भी इस टकराव में जान गंवानी पड़ती है.

जिस तरह देश में बाघों के संरक्षण के लिए प्रोजेक्ट बनाया गया है, उसी तरह धरती के सब से विशालकाय और आलीशान जीव हाथी को भी बाघों की तरह शेड्यूल एक के तहत संरक्षण प्राप्त है. बावजूद इस के भारत समेत दुनिया के कई देशों में इन की स्थिति काफी दयनीय बनी हुई है. 

आलम यह है कि तकरीबन 4 लाख आबादी वाले अफ्रीकी हाथियों पर गंभीर संकट मंडरा रहा है और लगभग 40 हजार जनसंख्या वाले एशियाई हाथी विलुप्त होने की कगार पर हैं. हाथियों की स्थिति में सुधार लाने के लिए 12 अगस्त, 2012 से वार्षिक विश्व हाथी दिवस (World Elephant Day) मनाया जाता है, जिस का उद्ïदेश्य हाथी के प्रति लोगों को जागरूक करना और इंसानों व हाथियों के बीच होने वाले संघर्ष का स्थाई समाधान खोजना है.  

आज विलुप्त होने की कगार पर खड़े हाथियों को भी इंसानों से ऐसे ही वचन की जरूरत है. ताकि ये विशालकाय जीव न केवल एक सुरक्षित जिंदगी जी सके, बल्कि इसे गुलामी की बेडिय़ों से भी मुक्ति मिले.

हाथियों के संरक्षण के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1992 में केंद्रीय वन मंत्रालय द्वारा प्रायोजित हाथी परियोजना (Project Elephant) की शुरुआत की थी. इस प्रोजेक्ट के 3 मुख्य उद्ïदेश्य थे, पहला हाथियों, उन के प्राकृतिक निवास और उन के कारिडोर को सुरक्षित करना. दूसरा इंसानों व जानवरों के बीच होने वाले संघर्ष का समाधान तलाशना और तीसरा बंधुआ हाथियों की स्थिति में सुधार  लाना.

केंद्रीय वन मंत्रालय ने एलिफेंट प्रोजेक्ट के तहत वर्ष 2017 में देश में हाथियों की गणना कराई थी. इस गणना के मुताबिक देश में हाथियों की कुल संख्या 29,964 थी. इन से तकरीबन 3 हजार हाथी विभिन्न लोगों, संस्थाओं अथवा मंदिरों द्वारा बंधक बना कर रखे गए हैं. एशियाई हाथियों की सबसे ज्यादा संख्या भारत में है, जो पूरी दुनिया में मौजूद एशियाई हाथियों की कुल संख्या का तकरीबन 60 फीसदी है.

मंत्रालय की रिपोर्ट में भारत में इंसानों व हाथियों के बीच संघर्ष को बड़ी चुनौती बताया है. प्रत्येक वर्ष हाथियों की वजह से एलिफेंट रेंज के करीब रहने वाले किसानों को लाखों रुपए की फसल और संपत्ति का नुकसान झेलना पड़ता है. ऐसी स्थिति से निपटने और हाथियों के उचित प्रबंधन की जिम्मेदारी राज्य वन विभाग की है.

अलगअलग राज्यों में वन विभाग ने इंसान-हाथी संघर्ष को कम करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए अल्पकालिक और स्थाई योजनाएं तैयार की हैं. बावजूद हाथी और इंसान के बीच संघर्ष थमने का नाम नहीं ले रहा है.

वन्य जीवों को बचाने के लिए वन विभाग करोड़ों रुपए खर्च तो करता है, लेकिन न तो द्वंद्व रुक रहा है न ही हाथियों की मौत रुक रही है. विशेषज्ञ कहते हैं कि वन तब तक सलामत रहेगा, जब तक उस में वन्य जीव होंगे. 

हाथियों की कब्रगाह क्यों बना छत्तीसगढ़

पिछले 23 सालों में छत्तीसगढ़ में 70 हाथियों की मौत हो चुकी है. वहीं, उन के कुचलने से 195 इंसानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है. यहां इंसान और हाथी की लड़ाई जारी है. आज भी हाथी कई मकानों पर हमला पर उन्हें ध्वस्त कर देते हैं.

 

 

 

इस के अलावा हाथी रहवास में कोल ब्लौक आरटीआई कार्यकर्ता और वन्यजीव प्रेमी सजल मधु ने बताया कि हाथियों की मौत के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. एलिफैंट कारिडोर बनाने के बजाय हाथियों के रहवास क्षेत्र में 17 कोल ब्लौक की अनुमति दी जा चुकी है.

छत्तीसगढ़ के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (पीसीसीएफ) सुधीर अग्रवाल ने बताया कि छत्तीसगढ़ में  लेमरू और बादलखोल तमोर पिंगला नाम के 2 हाथी रिजर्व हैं. 

क्यों बढ़ रहा है हाथी और इंसानों में टकराव

बीते 3 सालों में हाथियों से जानमाल की संख्या भी बेहद बढ़ी है. इन 3 सालों में हाथियों की वजह से हुए नुकसान पर कुल 58,581 प्रकरण बनाए गए. इस में वन विभाग द्वारा साढ़े 53 करोड़ रुपए का मुआवजा बांटा गया. सब से अधिक मुआवजा प्रकरण कोरबा, सरगुजा, धरमजयगढ़, जसपुर, कटघोरा, महासमुंद और गरियाबंद में बांटा गया.

छत्तीसगढ़ के बाद मध्य प्रदेश का शहडोल संभाग हाथी और इंसानों के टकराव का नया केंद्र बन गया है. पिछले 4 सालों में हाथी और मानव संघर्ष में तकरीबन 25 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. वहीं हाथियों द्वारा बड़ी संख्या में ग्रामीणों के घरों को क्षतिग्रस्त कर फसलों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है. 

2018 में छत्तीसगढ़ की सीमा पार कर उमरिया जिले के बांधवगढ़ में 40 हाथियों का समूह यहां आ गया था, जिस ने अपना रहवास यहीं पर बना लिया है. इस समूह के सदस्यों की संख्या अब बढ़ कर 80 के करीब हो गई है और ये अलगअलग समूहों में बंट गए हैं. यही जंगली हाथी ग्रामीणों की फसलों और घरों को नुकसान पहुंचा रहे हैं.

बिगड़ैल हाथियों को काबू में करने के लिए बहुत सी बातों का ध्यान रखना जरूरी है. पिछले 20 सालों से छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में हाथियों को चला रहे चंद्रभान महावत टिप्स देते हुए बताते हैं कि कोई भी हाथी 2 चीजों से ही काबू में रहता है. एक प्यार दूसरा मार, प्यार से कंट्रोल करने पर हाथी हमेशा शांत रहता है और उस के गुस्से में आने के चांस कम ही रहते हैं. 

जब कभी हाथी बिगड़ भी जाते हैं तो बहुत जल्दी कंट्रोल में आ जाते हैं. लेकिन जो जानवर मार से काबू में आते हैं, अगर वह बिगड़ जाए तो बवाल मच जाता है. हाथी बहुत बड़ा जानवर होता है और उस के बिगडऩे पर स्थिति कंट्रोल से बाहर हो जाती है. कभीकभी ऐसी स्थिति बनती है कि केवल हथिनी ही उन को कंट्रोल कर पाती है.

चंद्रभान बताते हैं कि अगर हाथी बेकाबू हो कर रहवासी इलाके या किसानों के खेतों के आसपास हैं और आप चाहते हैं कि फसलों को नुकसान न हो. 

ऐसी स्थिति में पटाखे जला कर, ढोल बजा कर, तेज गाना बजा कर या किसी भी तरह का शोर मचा कर उन्हें भगाया जा सकता है. शोर सुन कर वह जंगल की तरफ चले जाते हैं. लेकिन उन के पास भूल कर भी न जाएं, बिगड़ैल हाथी के पास जाने पर जान का खतरा बना रहता है.

भारत में तेजी से हाथियों की संख्या में गिरावट हो रही है. इस की सब से बड़ी वजह इन का अवैध शिकार है. कुछ लोग इन का हाथी दांतों के लिए अवैध शिकार कर रहे हैं. हाथी दांत की विदेशी बाजार में काफी मांग रहती है. इस का फायदा उठाने के लिए शिकारी इन का धड़ल्ले से शिकार कर रहे हैं. 

इन के दांतों का इस्तेमाल साजसजावट की चीजों को बनाने से ले कर शक्तिवर्धक दवाओं तक में भी धड़ल्ले से हो रहा है. ब्लैक मार्केट में हाथी दांत की कीमत लगभग एक लाख रुपए से शुरू होती है.

अब तक का सब से लंबा हाथी दांत 138 इंच का दर्ज हुआ है, जिस का वजन लगभग 142 किलोग्राम था. आप को बता दें कि हाथी की सामान्य आयु 70 वर्ष तक होती है और वे स्पर्श, दृष्टि, गंध और ध्वनि से संवाद करते हैं. हाथी बहुत बुद्धिमान होते हैं तथा वे भावनात्मक रूप से भी काफी परिपूर्ण होते हैं. किसी करीबी की मृत्यु हो जाने पर उन्हें उदास या रोते हुए भी देखा गया है.

देश के हाथी प्रभावित 10 बड़े राज्यों में सब से कम हाथी छत्तीसगढ़ में हैं, लेकिन 9 राज्यों में हाथियों की संख्या की तुलना में हाथियों से जनहानि सब से अधिक छत्तीसगढ़ में हुई है. छत्तीसगढ़ में आज की स्थिति में 247 हाथी हैं. बीते 3 सालों में इन हाथियों ने 200 लोगों को मौत के घाट उतारा है. 

छत्तीसगढ़ की तुलना में कनार्टक, केरल, असम, तमिलनाडु, उत्तराखंड में कई गुना अधिक हाथी हैं. कनार्टक में 6 हजार से अधिक हाथी हैं, लेकिन हाथियों से 3 सालों में 69 लोगों की मौत हुई. 

अन्य राज्यों में भी हाथियों की संख्या 24 गुना अधिक है, लेकिन हाथी और मानव के बीच टकराव की संख्या बेहद कम है. छत्तीसगढ़ में हाथियों की संख्या सब से कम होने के बावजूद जिस तरह से हादसे बढ़ रहे हैं, उसे ले कर सवाल उठने लगे हैं. हाथियों की संख्या का डंग पद्धति से की गई गणना की रिपोर्ट केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी की है.

हाथी गांव की ओर न आएं, इस के लिए छत्तीसगढ़ में हाथी विकर्षण बैरिकेड लगाए गए हैं, ताकि हाथी गांव में न घुसें. प्रदेश में कुल 53 हाथी मित्र दलों का गठन किया गया है और सजग सौफ्टवेयर बनाया गया है. 

गांव में अलर्ट सिस्टम भी बनाया गया है, जिस के जरिए हाथी के करीब आते ही गांव वालों को अलर्ट कर दिया जाता है. प्रदेश के 9 से ज्यादा प्रभावित वनमंडलों में हाथियों की बिजली के करंट से मरने की घटनाओं को रोकने के लिए 4 निजी संस्थाओं के माध्यम से अवैध हुकिंग व खुले करंट तारों को ठीक कराने का काम भी किया गया है.

हाथियों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर पलायन के कई  कारण हैं. दक्षिण भारत की स्थिति को देखें तो वहां के जंगलों में बड़ी संख्या में हाथी पाए जाते हैं. लेकिन विगत कुछ समय से दक्षिण भारत के जंगलों में घनेणी और रानमोडी जैसी वनस्पतियों की कमी होने की वजह से हाथियों सहित दूसरे शाकाहारी जीवों के लिए प्राकृतिक भोजन की कमी हो गई है. कमोबेश यही हालत पानी को ले कर नजर आते हैं. 

एशियाई हाथियों की संख्या में तेज गिरावट का एक कारण उन के आवासीय क्षेत्र का लगातार सिकुड़ता जाना है. विकास योजनाओं के कारण उन के रहने के ठिकाने तेजी से नष्ट हो रहे हैं. एशिया के कुछ हिस्सों में हाथी दांत के लिए हाथियों का व्यापक रूप से शिकार किया जाता है. नतीजतन उन की संख्या दिनबदिन घटती जा रही है.

हाथियों के अधिकांश आवासों से रेलमार्गों का जाल बिछ चुका है. सरकार ट्रेनों की संख्या और उन की गति को बढ़ाने के लिए नागरिकों की मांगों को अधिक तरजीह दे रही है. वहीं, तेज भागती ट्रेन की टक्कर में हाथियों की मृत्यु दर का आंकड़ा भी बढ़ता ही जा रहा है.

इस के अलावा हाथियों की संख्या घटने का एक कारण बिजली के तारों से उलझ कर करंट लगने से हादसे का शिकार होना भी है. कुछ सालों में हाथियों की ज्यादातर मौतें बिजली के झटके से हो रही हैं, क्योंकि ज्यादातर जंगली जगहों पर बिजली पहुंच तो गई है, लेकिन वहां अमूमन बिजली के नंगे तार लटके रहते हैं. 

इस तरह की लापरवाही का परिणाम यह होता है कि जब कभी कोई हाथी इन बिजली के तारों में फंस जाता है तो करंट से उस की मौत हो जाती है.

भारतीय हाथियों की ही यदि बात करें तो यह मुख्यत: मध्य एवं दक्षिणी पश्चिमी घाट, उत्तरपूर्व भारत, पूर्वी एवं उत्तरी भारत तथा दक्षिणी प्रायद्वीप के कुछ हिस्सों में पाए जाते हैं. इन्हें भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 में तथा पशुपक्षियों की संकटग्रस्त प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर अभिसमय में शामिल किया गया है. 

कैसे होती है हाथियों की गणना

आप की जानकारी के लिए बता दें कि भारत में हर 5 साल में हाथियों की गिनती होती है. इस के लिए 4 अलग विधियों का इस्तेमाल पिछले साल किया गया था. 

इस में पहली विधि के अंतर्गत सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया गया कि वो डिजिटल मैप तैयार करें, ताकि जंगलों और उन से बाहर मौजूद हाथियों की संख्या को दर्ज करना आसान किया जा सके. कुल मिला कर सरकार की कोशिश है कि हाथियों की मौजूदगी को जियोग्राफिकल इंफारमेशन सिस्टम पर भी लाया जा सके. 

इन की गणना की दूसरी विधि काफी पारंपरिक है. इस के तहत वन विभाग 2 या 3 लोगों की एक टीम बनाई जाती है और उन्हें 5 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र आवंटित कर दिया जाता है. ये टीमें हाथियों की उम्र और लिंग का रिकौर्ड तैयार करती हैं और उन की फोटो भी खींचती हैं.

तीसरी विधि में गणना करने वाले हाथी की लीद से इस की गिनती करते हैं. आप को बता दें कि एक हाथी एक दिन में 15-16 बार लीद करता है. इस के जरिए अंदाजा लगाया जाता है कि हाथियों का मूवमेंट कितना है और उन की सेहत कैसी है. हाथियों की उम्र का अंदाजा उन की ऊंचाई से लगाया जाता है. अमूमन वयस्क नर हाथी की ऊंचाई 8 फीट तक और मादा हाथी की 7 फीट होती है. 

हाथियों की गणना करने के चौथे तरीके में 2 या 3 वनकर्मियों की टीमें इस विधि में भी बनाई जाती हैं. यह टीम पानी के स्रोत के पास तैनात रहती हैं. यहां भी हाथियों की उम्र और लिंग का रिकौर्ड तैयार किया जाता है.

आमतौर पर जन्म लेने वाले हाथियों में नर और मादा हाथियों की संख्या लगभग बराबर रहती है. लेकिन उम्र बढऩे पर उन का अनुपात एक नर पर 2 या 3 मादा का हो जाता है. माना जाता है कि नर हाथी कमजोर माने जाते हैं. 

आमतौर पर हाथियों के झुंड को प्रतिवर्ष तकरीबन 350-500 वर्ग किलोमीटर पलायन करने के रूप में जाना जाता है. हाथियों को बचाने या इन की संख्या को बढ़ाने के मकसद से ही हाथी गलियारे का निर्माण किया गया था. भारत में इस तरह के करीब 101 गलियारे हैं, जिन में से सब से अधिक गलियारे पश्चिम बंगाल में स्थित हैं.

भारत में उपलब्ध 33 एलिफेंट रिजर्व 80,777 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं. साल 2017 की गणना के मुताबिक सब से ज्यादा हाथी कर्नाटक में 6,049 हैं. 5,719 हाथी असम तथा 3,054 केरल में हैं. 

आप को बता दें कि भारत में हाथियों की पिछली गणना वर्ष 2012 में संपन्न हुई थी, जिस में हाथियों की संख्या 29,391 और 30,711 के मध्य आंकी गई थी. 

इन की यह गिनती झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ में की गई थी. जबकि साल 2007 में यह संख्या 27,657 से 27,682 तक थी. अगस्त 2017 में सामने आई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हाथियों की कुल संख्या 27,312 दर्ज की गई.

झारखंड की ही यदि बात करें तो यहां पर हाथी राजकीय पशु घोषित है. यहां पर भी हाल के कुछ समय में हाथियों की संख्या में कमी आई है. यहां पर पिछली गणना में जहां हाथियों की संख्या 688 थी, वहां यह अब घट कर 555 रह गई है. यहां पर हाथियों की संख्या में हो रही कमी का एक कारण नक्सलियों के खिलाफ चल रहे अभियान को भी माना जा रहा है.

वन विभाग के मुताबिक इन औपरेशन की वजह से हाथी यहां से पलायन कर पड़ोसी राज्यों में जा रहे हैं. हाथियों की कम होती संख्या को देखते हुए ही 12 अगस्त, 2017 को विश्व हाथी दिवसके अवसर पर देश में इन के संरक्षण हेतु एक राष्ट्रव्यापी अभियान गज यात्राको केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री डा. हर्षवर्धन द्वारा लांच किया गया था. इस अभियान में हाथियों की बहुलता वाले 12 राज्यों को शामिल किया गया था.

क्यों किया जाता है हाथियों का शिकार 

इंसान और हाथी की दोस्ती और हाथी की रक्षा करने की सच्ची कहानी दिखाने वाले, दिल छू लेने वाले भारतीय वृत्तचित्र द एलिफेंट व्हिस्परर्सने आस्कर जीता था. 2023 में द एलिफेंट व्हिस्परर्सको बेस्ट डाक्यूमेंट्री शौर्ट फिल्म आस्कर अवार्ड मिला था. द एलिफेंट व्हिस्परर्स की कहानी मुदुमलाई नैशनल पार्क में बोम्मन और बेलि नाम के एक कपल की देखभाल में रघु नाम के एक अनाथ हाथी के बच्चे की है.

देश में साल 1986 से ही हाथी दांत की तस्करी पर प्रतिबंध लगा हुआ है. इस के बावजूद इस का अवैध व्यापार तेजी से फलफूल रहा है. वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2018 से 2022 तक के पिछले 5 सालों में देश भर के शिकारियों और व्यापारियों से 475 किलोग्राम हाथी दांत और इस की कलाकृतियां जब्त की गईं.

1976 में भारत वन्य जीव एवं वनस्पति की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर संधि साइट्स) में शामिल होने वाला 25वां देश बना. तब से वह हाथियों के संरक्षण के प्रयास में शामिल रहा है. 

लोकसभा में दिए गए एक प्रश्न के जबाब के अनुसार शिकारियों ने साल 2018 से 2022 तक 41 हाथियों को मार डाला, इन में से 12 हाथी अकेले मेघालय और 10 ओडिशा में मारे गए. शिकार के अलावा पिछले 5 सालों में 25 हाथियों को जहर दे कर भी मार दिया गया.

पहले केवल नर हाथियों को हाथी दांत के लिए शिकार किए जाने का खतरा था, क्योंकि मादाओं के दांत नहीं होते हैं. अब, शिकारी हर उस जानवर को मार रहे हैं जो उन्हें मिल रहा है, जिस में मादा और बच्चे भी शामिल हैं. शिकारी हाथियों को जहर भरे तीरों से अपना शिकार बनाते हैं.

हाथी धीरेधीरे जहरीले तीरों के आगे झुक जाते हैं तो शिकारी मौके पर ही अपने शिकार की खाल उतार देते हैं. हाथी की खाल की चीनी मांग को पूरा करने के लिए 2013 से म्यांमार में 100 से अधिक हाथियों का शिकार किया गया था. 

हाथियों को मार कर उन की खाल उतार कर बेचने का यह कारोबार म्यांमार और चीन से होते हुए दूसरे देशों तक फैल रहा है. हाथी की खाल के व्यापार का एक प्रमुख केंद्र अराजक बर्मी सीमावर्ती शहर मोंग ला है. यह म्यांमार के सब से महत्त्वपूर्ण बौद्ध तीर्थस्थलों में से एक, गोल्डन रौक के पास एक बाजार में भी फलफूल रहा है.

हाथी की त्वचा को सुखा कर पाउडर बनाया जाता है और नारियल के तेल के साथ मिला कर एक क्रीम बनाई जाती है. इस क्रीम का इस्तेमाल त्वचा रोगों के इलाज और पाचन संबंधी समस्याओं के इलाज में किया  जाता है. तस्कर हाथी की खाल का पाउडर और पैंगोलिन स्केल भी बनाते हैं. हाथी की त्वचा से मनके, कंगन जैसे आभूषण भी बनाए जाते हैं.

हाथियों की खूब होती है खातिरदारी

जंगली हाथी साल भर वन्य जीवों के रेस्क्यू, वन एवं वन्य जीवों के सरंक्षण में विशेष योगदान देते हैं, जिस के कारण पार्क प्रबंधन उन्हें कुछ दिनों के लिए उन की खातिरदारी कर उन्हें रेस्ट भी देता है. इस दौरान इन से रेस्क्यू या सरंक्षण का कोई काम नहीं लिया जाता. हाथी रिजर्व और नैशनल पार्क में हर साल इस तरह के कैंप चलाए जाते हैं.

खाने में हाथियों को गन्ना, केला, मक्का, आम, अनानास, नारियल परोसा जाता है. फिर उन्हें जंगल में छोड़ दिया जाता है. दोपहर में हाथियों को जंगल से फिर वापस ला कर और नहला कर कैंप में लाया जाता है. फिर इन्हें रोटी, गुड़, नारियल, पपीता खिला कर दोबारा जंगल में छोड़ दिया जाता है. 

कैंप में हाथी के लिए मौका होता है. अपने साथी को चुनने का भी. कैंप के बाद हाथी तरोताजा हो कर एक बार फिर पार्क के दुर्गम क्षेत्रों की सुरक्षा में अपनी महती भूमिका निभाने के लिए निकल जाते हैं.

जंगली जानवरों के संरक्षण के लिए वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन ऐक्ट साल 1972 में पास हुआ था. इस कानून के जरिए जंगली जानवरों का ही नहीं, पौधों की अलगअलग प्रजातियों के प्रोटेक्शन का भी ध्यान रखा गया है. इस के साथ ही इन की रिहाइश, जंगली जानवरों, पौधों और उन से बने उत्पादों के व्यापार को भी इसी के जरिए नियंत्रित किया जाता है.

42वें संशोधन अधिनियम 1976 के बाद वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन को राज्य की सूची से हटा कर समवर्ती सूची में डाल दिया गया था.  समयसमय पर इस ऐक्ट में कई संशोधन किए जा चुके हैं. 2002 में किए गए संशोधन के बाद जंगली जानवरों और वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाने पर सजा और जुरमाने की राशि बढ़ा दी गई थी.

वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन ऐक्ट में यह प्रावधान किया गया है कि अगर कोई व्यक्ति किसी वन्यजीव पर हमला करता है तो उसे कम से कम 3 साल और ज्यादा से ज्यादा 7 साल तक की जेल की सजा हो सकती है. कम से कम 10 हजार रुपए जुरमाना भी हो सकता है.

फिर क्राइम के नेचर को देखते हुए यह जुरमाना 25 हजार रुपए तक बढ़ाया जा सकता है. यही नहीं, कोई व्यक्ति किसी चिडिय़ाघर में भी किसी वन्यजीव को परेशान करता है या उसे नुकसान पहुंचाता है तो उसे 6 महीने की सजा और 2 हजार रुपए का जुरमाना चुकाना पड़ सकता है.

यदि कोई व्यक्ति टाइगर या हाथी रिजर्व क्षेत्र में शिकार या फिर कोई क्राइम करता है तो उसे सजा तो होगी ही, जुरमाना 2 लाख रुपए तक का हो सकता है. सब से ज्यादा जुरमाने का प्रावधान वन्यजीवों के खिलाफ इसी अपराध में है. 

यही नहीं, यदि कोई व्यक्ति वन्यजीवों के किसी भी हिस्से का उपयोग करता है तो भी उसे सजा हो सकती है. उदाहरण के लिए यदि कोई मोर के पंख का इस्तेमाल करता है तो उसे 3 साल तक की सजा का प्रावधान वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन ऐक्ट में किया गया है.

हाथी लुप्तप्राय श्रेणी में है और इसे वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत शेड्यूल प्रथम में रखा गया है. इस का शिकार करना, बंदी बना कर रखना, अंगों का व्यापार करना प्रतिबंधित है. ऐसे मामलों में 3 से 7 साल तक की सजा का प्रावधान है.

 

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