Hindi Social Stories : एक समय था, जब देह व्यापार के लिए बड़े शहरों में एक खास मोहल्ला निर्धारित होता था. लेकिन जैसेजैसे तकनीकी का विकास हुआ तो इस धंधे के तरीके भी हाईटैक हो गए. धंधा कोठों से निकल कर ब्यूटी पार्लर, मसाज सेंटर, होटलों तक पहुंच गया. भले ही कोठों की तवायफों में अब पहले जैसी नजाकत और अदाएं नहीं हैं. लेकिन वहां कुछ तो खास है, जो लोग अभी भी वहां जाते हैं. पेश है कुछ बड़े शहरों के कोठों के हाल…
देह व्यापार के तौरतरीके कितने हाईटेक हो चले हैं, यह बात अब किसी सबूत की मोहताज नहीं रह गई है. दुनिया के सब से बड़े और पुराने इस कारोबार की खूबी है कि यह वक्त के हिसाब से खुद को बदलता रहा है. एक वक्त था जब देह व्यापार के लिए हर शहर में एक खास मोहल्ला हुआ करता था, लेकिन बढ़ते शहरीकरण के चलते अब पूरे शहर में ही देह व्यापार होने लगा है. यह भी ग्राहकों की मांग की ही देन कहा जाएगा. ब्यूटी पार्लर और मसाज पार्लर अब देह व्यापार के बड़े केंद्र बन चुके हैं. छोटी से ले कर नामी सितारा होटलों और रिसौर्ट्स तक में देह बेची और खरीदी जाती है.
लेकिन कुछ तो बात है बदनाम इलाकों में, जो इन की पहचान पूरी तरह धुंधली नहीं पड़ रही. कहा जा सकता है कि मंडी मंडी ही होती है और फुटकर दुकान फुटकर ही होती है, जो शहर को कोई पहचान नहीं देती. देश के चुनिंदा शहरों के कुछ इलाके आज भी पूरी शिद्दत से देह व्यापार के लिए जानेपहचाने जाते हैं. इन में से कई खत्म हो चुके हैं और कई खत्म किए जा रहे हैं, जो हर्ज की बात नहीं, बशर्ते सैक्स वर्कर्स के विस्थापन को गंभीरता से लिया जाए तो.
कानून और धर्म तो सैक्स वर्कर्स के साथ कभी नहीं रहे और वह समाज जो इन का उपभोग करता है, वह भी इन्हें तिरस्कृत करता रहा है.आइए देखें कुछ देह मंडियों के ताजा हाल, जो बताते हैं कि अब तवायफों में भी पहले सी नजाकत और अदाएं नहीं रह गई हैं जो अब फुलटाइम या पार्टटाइम कालगर्ल्स में तब्दील हो चुकी हैं. कोलकाता का सोनागाछी सोनागाछी यानी सोने का पेड़ जो न केवल देश और एशिया बल्कि दुनिया के सब से बड़े रेडलाइट इलाके का नाम है, कोलकाता में है. इस बदनाम बाजार में कालगर्ल्स की तादाद 10 हजार के लगभग है जिन की बदहाली का रोना मीडिया और समाजसेवियों का पार्टटाइम बिजनैस, जौब या शौक कुछ भी कह लें, है.
दिक्कत तो यह है कि यहां के लिए कोई कुछ कर भी नहीं सकता और जो कर सकते हैं, वे इस इलाके में झांकते तक नहीं, लेकिन वह पूरी खबर यहां की रखते हैं. लौकडाउन के दौरान सूनी पड़ी रही जिस्मफरोशी की इस मंडी में थोड़ी हलचल पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान देखने को मिली थी, जब कुछ मीडियाकर्मियों ने यहां की सैक्स वर्कर्स के इंटरव्यू हमेशा की तरह लिए थे. हमेशा की ही तरह नतीजा कुछ नहीं निकला, जिस की उम्मीद यहां की सैक्स वर्कर करती भी नहीं. लेकिन लौकडाउन के दौरान जो मुसीबतें इन लोगों ने झेलीं, उस से इन्हें भी एहसास हो गया कि सिवाय ग्राहक के हमारा कोई और पालनहार नहीं.
मुसीबत के उन दिनों में कई सैक्स वर्कर्स को उन के नियमित ग्राहकों ने नेट बैंकिंग के जरिए पैसा भेजा था. उत्तरी कोलकाता में बसी इस देह मंडी का इतिहास कुछ भी हो, पर वर्तमान कभी अच्छा नहीं रहा. खासतौर से नेपाल, बांग्लादेश और पूर्वोत्तर राज्यों सहित ओडिशा व झारखंड से बड़ी तादाद में नाबालिग लड़कियां यहां जबरन देह व्यापार के लिए लाई जाती हैं. तंग संकरी गलियों के छोटेछोटे बदबूदार मकानों और कमरों में रहने को मजबूर सोनागाछी की सैक्स वर्कर्स की आंखों में कोई बड़ेबड़े सपने नहीं होते. उन्हें बस एक बार की सर्विस के एवज में मिले औसतन 2 सौ रुपए ही बहुत लगते हैं.
साल भर में कोई एक हजार नई लड़कियां इस बाजार में आती और लाई जाती हैं. इन में से कई दूसरे शहरों का रुख कर लेती हैं तो कुछ पैसों की जरूरत के मुताबिक शाम ढलने के बाद पार्टटाइम धंधे के लिए आतीजाती हैं. हां, कोई 6 हजार जरूर स्थाई रूप से यहां बस गई हैं. उन के घर भी हैं, पति भी है और बच्चे भी हैं. नहीं है तो बस आगे की जिंदगी की गारंटी, जो सोनागाछी नाम पड़ने के बाद से ही दलालों की मुट्ठी में कैद है. जरूरतमंद और शौकीन लोगों की चहलपहल से आबाद इस इलाके में दरअसल में एक नर्क सा बसता है, जिस में सुधार की बाबत कुछ नहीं हो रहा.
कभीकभार स्वास्थ कैंप लग जाते हैं, कंडोम बंट जाते हैं और जिन के पास राशन कार्ड हैं, उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिल जाता है. पर यह नाकाफी है क्योंकि यहां जिस्म बेचना मुनाफे का सौदा नहीं है. इस से इन का पेट भर भरता है, गाड़ी और बंगले नहीं आ जाते. फिर हालात और वक्त की मारी औरतें कहां जाएं. इस सवाल का जबाब शायद ही कोई समाजशास्त्री या विद्वान दे पाएगा और देगा भी तो यही कि ये यहीं ठीक हैं, यदि कहीं और धंधा करेंगी तो ज्यादा शोषण का शिकार होंगी. घुटन भरी जिंदगी जी रही इन देहजीवाओं को ज्यादा सहूलियतें देने का मतलब होगा यहां की पहचान खत्म करना. सोनागाछी की इस देहमंडी के बाद कोलकाता शहर रसगुल्ले के लिए मशहूर है.
मुंबई का कमाठीपुरा सोनागाछी में बहुत कुछ है पर सब कुछ नहीं है. यह सब कुछ मुंबई के रेडलाइट इलाके कमाठीपुरा में मिलता है. साउथ का सांवला माल भी, कश्मीरी भी और पंजाबी व उत्तराखंड सहित देश भर की लड़कियों का मिलना ग्राहकों को कमाठीपुरा खींच लाता है. मुंबई फिल्म वालों की भी है, अंडरवर्ल्ड व माफिया की भी है. अमीरों की भी है और गरीबों की भी है. गलत नहीं कहा जाता कि पैसा कमाने का जज्बा और जूनून हो तो मुंबई आप को निराश नहीं करेगी. अंगरेजों ने कमाठीपुरा, जिस का नाम पहले लाल बाजार हुआ करता था, विकसित तो अपने सैनिकों की हिफाजत और सहूलियत के लिए किया था, पर देखते ही देखते यह रेडलाइट इलाके में तब्दील हो गया.
देशदुनिया की लड़कियां कमाठीपुरा की शान और जान हैं, जिन्हें मुंबई की चकाचौंध से कोई वास्ता नहीं. चालों में रहने वाली ये कालगर्ल्स बिंदास हैं पर शोषित भी कम नहीं हैं. वेश्याओं की जिंदगी पर जितनी भी फिल्में अब तक बनी हैं, उन में कहीं न कहीं कमाठीपुरा जरूर दिखा है. जो लोग मुंबई घूमने जाते हैं उन की भी उत्सुकता एक बार कमाठीपुरा देख लेने की होती है. लेकिन यह हर कोई नहीं समझ पाता कि हाथ में सिगरेट और दारू का ग्लास पकड़ कर नाचने और झूमने की एक्टिंग करती कालगर्ल्स की हालत बहुत ज्यादा अच्छी नहीं. अपनी चमड़ी बेच कर जो कमाई ये करती हैं, उस का आधे से भी ज्यादा हिस्सा पुलिस वालों, दलालों, गुंडों और मवालियों की जेब में चला जाता है.
बाबजूद तमाम सचों के बड़ा सच यह है कि यहां की दुश्वार भरी जिंदगी जीने वाली कालगर्ल्स इस धंधे के संविधान में समयसमय पर जरूरी संशोधन करती रही हैं, मसलन वह कमाठीपुरा ही है, जहां की सैक्स वर्कर्स फैशन सब से पहले अपनाती हैं. सत्तर के दशक में यहां मीना कुमारी मधुबाला और हेमा मालिनी जैसा दिख कर ग्राहकों को लुभाया जाता था तो अब करीना कपूर, आलिया भट्ट और विद्या बालन जैसी स्टाइल चलन में हैं. कोई भी नया फैशन आम घरों में दाखिल होने से पहले कमाठीपुरा की खिड़कियों और दरवाजों से झांकता दिख चुका होता है.
साल 2000 की शुरुआत में जैसे ही डिजिटल युग का आगाज हुआ तो यह मंडी सब से पहले डिजिटल हुई. दूसरे राज्यों की सैक्स वर्कर्स जब नोकिया के बटन वाले फोन को चलाना सीख रही थीं, तब ये सैमसंग और दूसरी कंपनियों के टच स्क्रीन मोबाइल फोन औपरेट करने लगी थीं. हालांकि इस से उन की दुर्दशा नहीं सुधरी, पर थोड़ा फायदा धंधे में जरूर इन्हें हुआ. जबरिया देह धंधे में लाई जाने वाली लड़कियों का यह ट्रेनिंग सेंटर सरीखा है. कम उम्र में दलाल और रिटायर्ड सैक्स वर्कर्स इन्हें धंधे के सारे गुर सिखा देती हैं, जिन की कोशिश इन के जरिए ज्यादा से ज्यादा पैसे बना लेने की होती है.
कमाठीपुरा में सैक्स वर्कर्स की तादाद 4 हजार के लगभग ही आंकी जाती है लेकिन यह बदनाम इतना है कि सुधार और कल्याण के नाम पर मशहूर रामकथा वाचक मोरारी बापू भी यहां आ चुके हैं. अप्रैल 2018 में उन्होंने कमाठीपुरा की कोई 60 कालगर्ल्स को रामकथा सुनने अयोध्या बुलाया था, जिस के लिए न केवल आनेजाने का किराया भी उन्होंने दिया था बल्कि रामनगरी में खानेपीने, ठहरने और घूमनेफिरने का इंतजाम भी किया था. बहुत गौर से देखें तो कमाठीपुरा का नाम भी बिकता है. संजय लीला भंसाली निर्देशित और आलिया भट्ट अभिनीत फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी के नाम का विरोध भी यहां की सैक्स वर्कर्स ने किया था. और अब जल्द ही प्रदर्शित होने जा रही वेब सीरीज कमाठीपुरा के नाम का विरोध भी खूब हुआ.
इस में इस इलाके में रहने वाले लोगों ने भी सैक्स वर्कर्स का साथ दिया, लेकिन क्या यह हल है और क्या इस से गुंडेमवालियों जैसी मुसीबतों से इन्हें छुटकारा मिल जाएगा. इस सवाल का जबाब हां में तो कतई नहीं मिलता दिखता. जब तक देह है तब तक कमाठीपुरा कमाठीपुरा ही रहेगा, जो हर शहर में अलग नाम से होता है जैसे कि देश की राजधानी दिल्ली में जीबी रोड है. दिल्ली का जीबी रोड शहर का तब्दील होना शाद रहना और उदास…
रौनकें जितनी यहां हैं औरतों के दम से हैं. मशहूर शायर मुनीर नियाजी ने यह शेर किस मूड में कहा होगा, यह तो वही जानें लेकिन दिल्ली की जीबी रोड का आबाद रहना बताता है कि दिल्ली की तमाम रौनकों में से एक रौनक यह बदनाम इलाका भी है. मुगल काल में यहां 5 कोठे यानी रेडलाइट इलाके हुआ करते थे, जिन्हें अंगरेजों ने मिला कर एक कर दिया था और नाम दिया था गारस्टिन बास्टिन रोड, जिसे संक्षेप में जीबी रोड कहा जाने लगा. दिल्ली आने वाले लगभग सभी लोगों ने जीबी रोड नाम सुना होता है और उन के दिमाग में इस की एक अलग तसवीर भी होती है.
जान कर कोई भी आसानी से यकीन नहीं कर सकता कि जीबी रोड हार्डवेयर और आटोमोबाइल का एक बड़ा बाजार भी है, जो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के नजदीकी अजमेरी गेट से ले कर लाहौरी गेट तक फैला हुआ है. दिन भर दुकानों पर हार्डवेयर और आटोमोबाइल का व्यापार होता है, लेकिन रात होते ही सब कुछ ठीक वैसे ही बदल जाता है जैसे ठीक से न देख पाने के चलते परदे पर मंजर बदल जाया करते हैं. इस इलाके की 25 इमारतों में कोई एक हजार सैक्स वर्कर रहती हैं, जिन से शाम होते ही यह इलाका गुलजार हो उठता है. यह शायद देश का पहला रेडलाइट इलाका है, जहां लौकडाउन और उस के भी पहले नोटबंदी तक ग्राहक कतार में लगे नजर आते थे.
अब बात पहले सी नहीं रही खासतौर से लौकडाउन के बाद देह के शौकीन लोग यहां आने से कतराने लगे हैं. जिन्हें फरमाइश और खासा पैसा देने के बाद मुजरा भी देखने को मिल जाता था. देश के दूसरे बदनाम इलाकों की तरह जीबी रोड के कोठों पर लड़कियां बहुत बड़ी तादाद में जबरिया नहीं लाई जातीं. कहने का मतलब यह नहीं कि यहां शौक के चलते देह व्यापार होता है बल्कि यहां भी हालात की सताई औरतें सजधज कर होंठों पर फरजी मुसकराहट लिए ग्राहकों को इशारे से बुलाती नजर आती हैं. चूंकि यह एक तरह से परंपरागत इलाका है इसलिए कालगर्ल का रेट भी यहां के मर्द तय करते हैं. जैसे ही ग्राहक 2 दुकानों के बीच बनी सीढि़यों से हो कर ऊपर पहुंचता है तो उस का पहला सामना खुद को खूंखार दिखाने की कोशिश कर रहे दलाल से होता है, जो उसे कालगर्ल दिखाता है. वह ग्राहक को उस का रेट बताता है.
फुलनाइट चार्ज यहां के मेन्यू कार्ड का सब से ज्यादा दाम वाला आइटम है, जिस की शुरुआत ही 5 हजार से ऊपर होती है फिर इस से रेट का बढ़ना लड़की की उम्र और जिस्म के भूगोल पर निर्भर करता है. मुगलों के जमाने में यहां की तवायफों की बड़ी इज्जत हुआ करती थी. हरेक ब्रांडेड तवायफ का तयशुदा दाम हुआ करता था, जिस में आज की तरह मोलभाव नहीं होता था. यह कोठों और कोठेवालियों की तौहीन मानी जाती थी. पर अब सब गुजरे कल की बातें हो चली हैं. कभीकभार ग्राहकों और दलालों के बीच का झगड़ा बढ़ जाता है तो पुलिस की सेवाएं लेनी पड़ती हैं जो सभी को मंहगी पड़ती है खासतौर से ग्राहक को. अगर वह दिल्ली के बाहर का हो तो बेचारा जेब से निचुड़ जाता है.
वैसे भी पुलिस के छापे पड़ना यहां आम बात है, क्योंकि हर किसी की नजर यहां की बेशकीमती जमीनों पर है जहां रह रहे नगीनों को हटाने की साजिश आए दिन रची जाती है. पुलिसिया छापों में जब नाबालिग पकड़ाती हैं तो खूब सनसनी मचती है कि गौर से देखिए 12 साल की इस मासूम को, जिसे जिस्मफरोशों ने देह व्यापार की दलदल में धकेल दिया… और यह मासूम… यह तो आगरा से बहलाफुसला कर लाई गई थी. इसे अच्छी नौकरी और बेहतर जिंदगी देने का वादा दिया गया था, लेकिन जब आंखें खुलीं तो स्कूल जाने और खिलौनों से खेलने की उम्र वाली इस मासूम के सामने जिस्म के भूखे भेढि़ए जीभ लपलपा रहे थे.
तमाम कोशिशों के बाद भी सैक्स वर्कर्स को यहां से खदेड़ा नहीं जा सका. साल 1965 में इसी मकसद से जीबी रोड का नाम श्रद्धानंद मार्ग रख दिया गया था, जिस का कोई फर्क नहीं पड़ा. अब फिर जीबी रोड की रौनक वापस लौटने लगी है. देश भर के छोटेमोटे व्यापारी जो दिल्ली आते हैं, वे पहाड़गंज के बजाय जीबी रोड की होटलों में ठहरने को तवज्जो देते हैं क्योंकि यह नजदीकी उन्हें सस्ती पड़ती है. ये लोग मुनीर नियाजी के कलाम तो दूर की बात है, उन के नाम से भी वाकिफ नहीं होते पर यह बेहतर जानते हैं कि रौनकें तो औरत से ही होती हैं फिर वे चाहे जैसी भी हो. वाराणसी का शिवदासपुर
कभी तवायफों के लिए मशहूर रहे वाराणसी के रेडलाइट इलाके शिवदासपुर का मुजरा सुनने और नृत्य देखने देश भर के शौकीन लोग आया करते थे, जो काशी विश्वनाथ के दर्शन भी हाथोंहाथ कर लेते थे. इसी मंदिर से सटा इलाका था दाल मंडी, जो देहव्यापार का बड़ा अड्डा था. 70 के दशक में तवायफों को शिवदासपुर शिफ्ट कर दिया गया था. परंपरागत वेश्यावृत्ति के लिए पहचाने जाने वाले वाराणसी शहर की फिजा अब बदल रही है. अब शरीफ लोग चाहते हैं कि जिस्मफरोशी का यह कलंकित धंधा बंद हो. वाराणसी की वेश्याओं ने बहुत उतारचढ़ाव देखे हैं.
कई बार उन का विस्थापन और पुनर्वास हुआ है लेकिन हर बार उन की संख्या घटी है. अब शिवदासपुर के 40-45 घरों से ही यह धंधा होता है जिस में सैक्स वर्कर्स की तादाद पूरी एक हजार भी नहीं. अब जो बची हैं उन में से ज्यादातर पीढ़ी दर पीढ़ी यह धंधा करती रही हैं. उजड़ी नवाबी और जमींदारी की तरह नई पीढ़ी की तवायफों के पास भी अपने वैभवशाली इतिहास के संस्मरण भर बचे हैं.इस रिहायशी इलाके में हर तरह के लोग रहते हैं. कुछ घरों में तो गृहस्थ घर होने की तख्ती भी टंगी है जिस से ग्राहक गलतफहमी में पड़ कर देर रात उन का दरवाजा न खटखटाएं. फिर भी कलह और कहासुनी रोज रोज की बात है.
3 साल पहले यहां के लोगों ने एक बड़ा धरना दिया था कि वेश्याओं को यहां से हटाओ. अपनी जगह इन के अपने तर्क सटीक थे, पर जबाब में तवायफों ने भी कई दलीलें दी थीं जिन की कोई काट नहीं. वाराणसी की तवायफें सहज ही किसी पर भरोसा नहीं करतीं. हालांकि वे शाम से ही सजधज कर बैठ जाती हैं और उन में से कइयों के परिवारजन नीचे ग्राहक तलाश रहे होते हैं. नरेंद्र मोदी जब यहां से सांसद बने थे तो इन तवायफों ने भी उन से ज्यादा उम्मीदें पाल लीं थीं. कई घरों में मोदी की तसवीर भी लटकती नजर आती है. इन तवायफों को अब धीरेधीरे समझ आ रहा है कि कोई राजनैतिक दल इन का भला नहीं कर सकता, इसलिए वे अब किसी पचड़े में नहीं पड़तीं.
अपने बच्चों के लिए शिवदासपुर में स्कूल की मांग सालों से सैक्स वर्कर कर रही हैं, लेकिन उन की कहीं सुनवाई नहीं होती. आए दिन परेशान करने की गरज से वेश्यावृत्ति का मुकदमा दायर कर दिया जाता है जिस में खासा वक्त और पैसा तवायफों का जाया होता है. प्रयागराज का मीरगंज वाराणसी के शिवदासपुर की तरह ही प्रयागराज का मीरगंज भी बदहाल है, जहां देह व्यापार कोई 200 साल से हो रहा है. लेकिन अब यहां कहने भर को ही कालगर्ल्स बची हैं. साल 2016 में एक बड़ा छापा मीरगंज में पड़ा था, जिस में लगभग 200 सैक्स वर्कर्स को यहांवहां के आश्रमों में भेज दिया गया था. इन में से कुछ ही वापस आ पाईं, बाकी दूसरे शहरों में जा कर धंधा करने लगीं.
शहर के बीचोबीच के इस पौश इलाके के चौक की संकरी गलियों में लड़कियां सजसंवर कर बैठ जाती हैं और आतेजाते लोगों को आ जा राजा मजे ले ले. जैसे जुमलों से बुलाती नजर आ जाती हैं. मीरगंज भी पहले तवायफों और मुजरों के लिए मशहूर था लेकिन धीरेधीरे यह भी पूर्वी उत्तर प्रदेश का देहव्यापार का बड़ा अड्डा बन गया. ऐसा माना जाता है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जन्म मीरगंज में हुआ था. इस पर आए दिन बहस और विवाद होते रहे हैं जिस से सैक्स वर्कर्स को कोई लेनादेना नहीं होता. वे अब अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहीं हैं, जो हालात देख लगता नहीं कि ज्यादा चल पाएगी.
मीरगंज की सैक्स वर्कर्स की दशा श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित 1983 में प्रदर्शित फिल्म ‘मंडी’ जैसी होती जा रही है, जिस में वेश्याओं को खदेड़ने नेता, अधिकारी और रियल एस्टेट के कारोबारी साजिश रच कर उन्हें पुनर्वास के नाम पर यहां से वहां भगाते रहते हैं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि मीरगंज में तो ऐसा भी नहीं हो रहा. पुणे का बुधवार पैठ दिल्ली के जीबी रोड की तरह ही बसाहट है पुणे के बुधवार पैठ इलाके की, जहां नीचे ज्ञान बांटती किताबों का बाजार है और ऊपर हैं कालगर्ल्स के मकान, जिन्हें कोठे कहा जाता है. इस इलाके में इलेक्ट्रौनिक्स का कारोबार भी बड़े पैमाने पर होता है.
बुधवार पैठ को सोनागाछी के बाद देश का दूसरा बड़ा रेडलाइट इलाका माना जाता है, जहां लगभग 3 हजार स्थाई और 4 हजार अस्थाई कालगर्ल्स अपना और अपनों का पेट देह बेच कर पालती हैं. दिलचस्प बात यह कि यहां नेपाली लड़कियों की भरमार है जो साल 2 साल में एकाध बार घर का चक्कर लगा आती हैं और साथ में एक नई लड़की लटका लाती हैं. यह दृश्य देख कर सहज ही गरीबी नाम के अभिशाप को समझा जा सकता है. बुधवार पैठ का नजारा ठीक वैसा ही रहता है जैसा कि हिंदी फिल्मों में दिखाया जाता रहा है. तंग गलियों की भीड़भाड़ में हाथ में गजरा लपेटे ग्राहक, उन्हें खोजते दलाल, पान की दुकानों पर होता मोलभाव, नशे में झूमते लोग, ऊपर की मंजिल से सैक्सी इशारे कर रही कालगर्ल्स और गानों की तेज आवाज लेकिन असल तसवीर हर किसी को नहीं दिखती कि यह रौनक चंद घंटों की होती है.
सुबह होते ही इक्कादुक्का लोग नजर आते हैं. दोपहर बाद सेक्स वर्कर्स सो कर उठती हैं रोजमर्रा के काम निबटाती हैं और फिर कभी न खत्म होने वाले धंधे में अपना रोल निभाने तैयार हो जाती हैं. बुधवार पैठ की सैक्स वर्कर्स पर मुंबई का असर जल्द होता है शायद यही वजह थी कि लौकडाउन के दौरान उन्हें भी बाहर से मदद मिलती रही थी. कइयों ने सेठ साहूकारों और व्यापारियों से कर्ज भी लिया था. आम दिनों में सैक्स वर्कर्स की औसत आमदनी 25 हजार रुपए महीना होती है, लेकिन इस में भी खर्च मुश्किल से चलता है. अधिकांश लड़कियों को आधा पैसा घर भेजना पड़ता है. खुद वे भी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं रहतीं. कई तो पुराने जमाने के लकड़ी के बने मकानों में रह रही हैं. इन के पास अपनी पहचान साबित करने के जरूरी दस्तावेज भी नहीं हैं.
साल 2008 में माइक्रोसाफ्ट के मुखिया बिल गेट्स जब बुधवार पैठ आए थे और कोई एक घंटे सैक्स वर्कर्स से बात की थी, तब खासा हल्ला देशदुनिया में मचा था. बिल गेट्स ने 200 अरब डालर की भारीभरकम मदद का ऐलान किया था. इस पैसे का क्या हुआ, किसी को कुछ नहीं मालूम. हां, यह जरूर साफसाफ दिखता है कि बुधवार पैठ में कोई बदलाव नहीं आया है. यहां की सैक्स वर्कर्स अंधेरे बदबूदार सीलन भरे कमरों में ही रहती हैं. नागपुर का गंगाजमुना बीती 26 अगस्त को नागपुर में उस वक्त सन्न्नाटा सा खिंच गया था, जब प्रशासन ने यह फरमान जारी कर दिया था कि आगामी 2 महीने तक शहर के बदनाम इलाके गंगाजमुना में देह व्यापार प्रतिबंधित रहेगा.
ऐसा स्थानीय नागरिकों की शिकायतों पर किया गया था, जिन के मुताबिक यहां की सैक्स वर्कर्स आए दिन राह चलते लोगों को भद्दे इशारे करती हैं और इस इलाके में अपराध अब आम हो चले हैं. अलावा इस के नाबालिग लड़कियों से भी देह व्यापार कराया जाता है. ये शिकायतें पूरी तरह गलत नहीं हैं क्योंकि यह नागपुर के इस बदनाम इलाके का उजागर सच है. लेकिन एक कड़वा सच इस सवाल का जबाब न मिलना भी है कि कोई एक हजार सैक्स वर्कर्स अब कैसे पेट भरेंगी क्योंकि प्रशासन ने उन के लिए कोई वैकल्पिक जगह नहीं सुझाई है. अब मुमकिन है ये आसपास के शहरों में अस्थाई पलायन कर जाएं पर यह समस्या का हल नहीं है.
विदर्भ में देह व्यापार का इतिहास काफी पुराना है जिस का सीधा संबंध गरीबी और भुखमरी से है, जो अभी भी ज्यों की त्यों हैं. नागपुर जंक्शन पूरे देश को जोड़ता है, जहां चारों दिशाओं से लोग कामकाज की तलाश में आते हैं. जिन को काम नहीं मिलता, उन की औरतें धंधा करने लगती हैं जिस में गंगाजमुना उन का बड़ा मददगार होता है. यहां देह दूसरे शहरों के मुकाबले सस्ती है और माहौल भी परंपरागत बाजारों जैसा है. शरमाए सकुचाए पहली बार आए ग्राहकों का हाथ पकड़ कर सैक्स वर्कर्स अपने कमरों में ले जाती हैं और उस की पूरी जेब खाली कर देती हैं. तंग संकरी गलियां गंगाजमुना की भी पहचान हैं जहां के अधिकांश मकान नीचे ही हैं. बीते कुछ सालों में नागपुर में तेजी से बार खुले तो मुंबई के बारों की तरह यहां के बारों में भी जवान लड़कियां कमर, छाती और कूल्हे मटका कर बारबाला की नौकरी करने लगीं और देह व्यापार के नए नए अड्डे भी विकसित होने लगे. स्थानीय लोगों ने इन लड़कियों को वारांगनाएं शब्द दे दिया है.
अब आलम यह है कि इन्हें मुश्किल से भी रहने के लिए किराए पर मकान नहीं मिलते. दूसरे दलालों ने धंधा बढ़ता देख अपना नेटवर्क बढ़ाना शुरू कर दिया, जिस से नागपुर बदनाम तो हुआ पर इस से सैक्स वर्कर्स को एक नया ठिकाना भी मिला, जिसे प्रशासन साजिश के तहत खत्म कर रहा है. 2 महीने बाद गंगाजमुना की तसवीर कुछ और होगी जो सैक्स वर्कर्स दूसरे शहरों का रुख कर रही हैं, वे सभी वापस नहीं लौटने वाली. लेकिन यह तय है कि तब तक और नई लड़कियां यहां सप्लाई होंगी यानी परेशानी और समस्या बजाय कम होने के और बढ़ेगी. बदल रही है पहचान सारे देश के बदनाम इलाकों की इमारतें इस पेशे की तरह जर्जर हालत में हैं, जिन के पूरी तरह टूटने का इंतजार भूमाफिया के अलावा स्थानीय लोग भी कर रहे हैं, जो सीधे इन से टकराने की हिम्मत नहीं जुटा पाते.
मेरठ का कबाड़ी बाजार हो, ग्वालियर का रेशम बाड़ हो या फिर इंदौर का बौंबे बाजार, इन सभी की पहचान धीरेधीरे खत्म हो रही है. इन बाजारों में अब कहने भर को कालगर्ल्स बची हैं. ग्राहकों को भी यहां आना महंगा पड़ने लगा है क्योंकि सैक्स वर्कर अब हर कहीं मिल जाती हैं. कल तक रिक्शे, तांगे और आटो वाले जो इन के दलाल तो नहीं कहे जा सकते पर इन से वाकिफ अच्छे से हुआ करते थे, इन्हें ग्राहक लाने पर ठीकठाक बख्शीश मिल जाया करती थी. उन का दायरा भी इन्हीं की तरह बढ़ने के नाम पर तितरबितर हो गया है. देहव्यापार धर्म और संस्कृति का अटूट हिस्सा हमेशा से ही रहा है और अब भी है क्योंकि तमाम जिल्लतें झेलने के बाद भी सैक्स वर्कर्स धर्मभीरु ही हैं.
हर बदनाम इलाके में स्कूल हों न हों लेकिन पाप धोने को मंदिर जरूर हैं. नई साजिश एनजीओ वगैरह के जरिए इन इलाकों में घुसपैठ कर उन्हें उजाड़ने की हो रही है. ये संस्थाएं सैक्स वर्कर्स को बदनाम ज्यादा करती हैं उन की बेहतरी के लिए ठोस कुछ नहीं करतीं. आज जो सभ्य शहरी लोग इन इलाकों की पहचान पर एक खतरे की तरह मंछरा रहे हैं, वे शायद यह नहीं सोच पा रहे कि कल को उन्हीं के पौश इलाके में यह कारोबार फलेगाफूलेगा और ऐसा होने भी लगा है. रिहायशी इलाकों से पकड़ाते सैक्स रेकेट इस बात के गवाह भी हैं. Hindi Social Stories