दक्षिण पश्चिमी दिल्ली के पुराना नांगल के बस्ती इलाके में किराए पर रहने वाले मोहन लाल, सुनीता देवी और उन की 9 साल की बच्ची लक्ष्मी (बदला हुआ नाम) का जीवन आम दिनों की तरह ही गुजर रहा था. मोहन लाल और सुनीता देवी दोनों ही अपना घर चलाने के लिए कभी कूड़ा बीनते, कभी भंगार का काम करते तो कभी अपने घर के नजदीक पीर बाबा की दरगाह पर लोगों से पैसे मांगने बैठ जाया करते थे.

मोहन लाल और सुनीता देवी के किराए के एक कमरे में बहुत कुछ सामान नहीं था. उन के कपड़े, पानी भरने के लिए खाली बरतन, खाना बनाने के लिए एक चूल्हा और एक छोटा गैस सिलिंडर. इस के अलावा उन की बेटी लक्ष्मी के खेलने के लिए कुछ पुराने खिलौने. न ही उन के घर पर टीवी था, न ही फ्रिज, कमरे में एक एलईडी बल्ब और ऊपर पंखा था.

वैसे तो दिल्ली में अगस्त के पहले सप्ताह में बारिश खूब हो रही थी, लेकिन गरमी भी उसी हिसाब से बेतहाशा पड़ रही थी. घर में पीने के लिए पानी तो था, लेकिन ठंडे पानी के लिए मोहन का परिवार अकसर अपने घर के नजदीक श्मशान घाट में जाया करते थे, जहां पर वहां आने वाले लोगों के लिए वाटर कूलर की व्यवस्था की गई थी.

पहली अगस्त की शाम के करीब साढ़े 5 बजे लक्ष्मी ने अपने बाबा से जिद की कि उसे खेलने के लिए बाहर जाना है. उस समय घर पर सिर्फ मोहन और उस की बेटी लक्ष्मी ही थे. सुनीता घर पर मौजूद नहीं थी, वह पीर बाबा दरगाह पर थी.

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