कुत्तों के लिए बीवियां छोड़ने वाला जूनागढ़ का नवाब

25 अक्तूबर, 1947 को एक प्राइवेट जेट ने आधी रात को भारत से पाकिस्तान के लिए उड़ान भरी थी. इस विमान के पिछले हिस्से में हीरे जवाहरात से भरे बड़ेबड़े बक्से रखे थे. इन बक्सों के आगे कोई 1-2 नहीं, सैकड़ों पालतू कुत्ते बैठे थे. विमान में बीच की सीटों पर जूनागढ़ रंगमंच के कुछ कलाकार थे तो उस के आगे की सीटों पर भारत की एक रियासत जूनागढ़ के नवाब अपनी 7 बेगमों के साथ बैठे थे.

कुछ घंटों की उड़ान के बाद वह विमान कराची के हवाई अड्डे पर उतरा तो वहां के कर्मचारी विमान में ठसाठस भरे कुत्तों को देख कर दंग रह गए थे. लेकिन इस से भी ज्यादा हैरानी की बात तो यह थी कि नवाब अपने पसंदीदा कुत्तों को साथ ले जाने के चक्कर में अपनी 2 बेगमों को भारत में ही छोड़ गए थे. यह नवाब थे, मोहम्मद महाबत खान रसूल खान बाबई, जिन्हें जूनागढ़ के आखिरी नवाब के रूप में भी जाना जाता है.

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नवाब महाबत खान ने कुल 19 शादियां की थीं. वह अपनी सभी बेगमों से बहुत प्यार करते थे. वह एक को तलाक देते थे तो दूसरी से निकाह कर लेते थे. मुसलिम धर्म में साली से निकाह करना धर्म के खिलाफ माना जाता है, फिर भी नवाब महाबत खान ने अपनी साली से निकाह किया था.

बाद में साले की बेटी से भी निकाह किया. वैसे मुख्यरूप से उन की 4 बेगमें थीं. इस के अलावा 9 बेगमें और थीं. मुख्य बेगम भोपाल बेगम थीं, जो भोपाल की ही थीं. भोपाल बेगम के बेटे दिलावर खान का वर्चस्व अधिक था.

महाबत खान के कुल 19 बच्चे पैदा हुए थे. जाते वक्त इन में से 10 बच्चे साथ गए थे. जबकि दूसरे नंबर का प्रिंस भारत में ही रह गया था. उसे बाद में केशोद से पाकिस्तान के कराची भेजा गया था. दिलावर खान सब से बड़ा था, इसलिए उसे अचु बापू कहा जाता था.

सब से बड़ा होने की वजह से वही नवाब का वारिस भी था. दिलावर खान का निकाह भोपाल बेगम ने अपने परिवार में ही कराया था. उन का बेटा जहांगीर खान था, जिस की पाकिस्तान में अभी जल्दी मौत हुई है.

भोपाल बेगम बहुत क्रूर थी. पाकिस्तान में उस ने अपनी नौकरानी को इतना मारा था कि उस की मौत हो गई थी. उस पर कराची में केस भी चला था.

जबकि नवाब महाबत खान बहुत ही विनम्र स्वभाव के थे. किसी को भी मरवाने पिटवाने की कौन कहे, कभी वह किसी से ऊंची आवाज में बात तक नहीं करते थे. उन में हिंदू मुसलमान के मतभेद जैसा भी कुछ नहीं था.

उन के पैलेस में कपिला नाम की काले रंग की एक गाय थी. उस गाय का मुंह देख कर ही वह अपने दिन की शुरुआत करते थे. उन का अपना गायों का फार्म था. वह गायों की खुद देखभाल करते थे. उन की गायों के नाम भी गंगा, गोदावरी, कावेरी आदि थे. वह गायों को ‘मां कह कर संबोधित करते थे.

नवाब की जितनी भी बेगमें थीं, उन सब से ज्यादा प्यार उन्हें अपने कुत्तों से था. कहा जाता है कि उन के पास करीब 800 कुत्ते थे. हर कुत्ते के लिए अलग नौकर था और उन के रहने के लिए हवादार कमरे बने थे. एक कमरे में 2 कुत्ते रहते थे और उन की देखभाल के लिए एक आदमी रहता था. खाना उन की मनपसंद का दिया जाता था.

ये सभी कुत्ते ठाठ की जिंदगी जीते थे. अगर कुत्ता बीमार हो जाता तो उस का इलाज अंगरेज डाक्टर से करवाया जाता था और अगर कोई कुत्ता मर जाता तो उसे पूरे रीतिरिवाज के साथ दफनाया जाता था. इतना ही नहीं, कुत्ते की मौत पर एक दिन का राजकीय शोक भी रखा जाता था. उन के पाकिस्तान जाने के बाद यहां करीब 100 कुत्ते रह गए थे, जिन की बाद में नीलामी की गई थी.

नवाब महाबत खान ने इतिहास की सब से मशहूर ‘द डौग वेडिंग औफ जूनागढ़’ भी करवाई थी. उन्होंने अपनी प्यारी कुतिया रोशनआरा की शादी अपने दीवान के कुत्ते बौबी के साथ तय की थी. रोशनआरा की शादी के लिए बाकायदा कार्ड छपवाए गए थे. बड़ेबड़े बैंक्वेट तैयार कराए गए थे. पूरे जूनागढ़ को दुलहन की तरह सजाया गया था.

इस शाही शादी में दुलहन रोशनआरा और दूल्हे बौबी को हाथी पर बैठा कर बारात निकाली गई थी. बारात में आए अन्य कुत्तों की भी खूब आवभगत की गई थी. उस समय इस रायल वेडिंग पर करीब 22 हजार रुपए खर्च हुए थे, जो आज के समय में करीब ढाई करोड़ रुपए के बराबर हैं.

जो आदमी कुत्ते की शादी में इतने रुपए खर्च कर सकता था तो उस आदमी की जिंदगी कितनी ठाठबाट वाली रही होगी, लेकिन अतीत में झांक कर देखा जाए तो एक समय वह भी था, जब नवाब महाबत खान का परिवार अफगानिस्तान के कबीलों के बीच रहा करता था और चंद पैसों के लिए लड़ाइयां लड़ा करता था.

लेकिन भारत आ कर ये नवाब बन गए तो दौलत, शोहरत, इज्जत और ताकत सब कुछ पा गए थे. भारत में उन्हें क्या नहीं मिला, फिर भी 15 अगस्त, 1947 को ठीक आजादी वाले दिन महाबत खान ने बिना यह सोचेसमझे कि पाकिस्तान में उन का क्या हश्र होगा, जूनागढ़ रियासत का विलय पाकिस्तान में कर दिया था.

पाकिस्तान जा कर नवाब महाबत खान का क्या हश्र हुआ, यह जानने से पहले हम थोड़ा इन नवाबों के अतीत के बारे में जान लें तो ज्यादा अच्छा रहेगा.

भारत से करीब 2 हजार किलोमीटर दूर हिमालय, तियांसा, हिंदूकुश, कुंदुन, सुलेमान और काराकोरम के खूबसूरत पहाड़ों को अपने आप में समेट कर बना है अफगानिस्तान. सदियों पहले इन्हीं पहाड़ों की तलहटी में अलगअलग कबीले रहते थे. इन्हीं में एक था बाबई कबीला, जो पश्तून जनजाति से आता था.

ये लंबेचौड़े हट्टेकट्टे होते थे. इसलिए जब किसी रियासत के राजा या किसी दूसरे कबीले के सरदार जंग में जाते तो इन्हें अपने साथ ले जाते थे. ये चंद पैसों के लिए अपनी जान दांव पर लगा कर लडऩे को तैयार हो जाया करते थे.

यह उस समय की बात है, जब भारत पर मुगल बादशाह हुमायूं का शासन था. अलगअलग रियासतों से युद्ध के लिए हुमायूं को सैनिकों की जरूरत थी. उसी समय बाबई कबीले के बहुत से लोग भारत आ कर हुमायूं की सेना में शामिल हो गए थे. इन्हीं में एक थे बहादुर खान बाबई.

कहा जाता है कि राजमाता कर्णावती ने चित्तौड़ की रक्षा के लिए हुमायूं को राखी भेजी थी. जब हुमायूं चित्तौड़ की रक्षा के लिए अपनी सेना के साथ निकला था, तब बहादुर खान बाबई भी उन के साथ था.

इस युद्ध में बहादुर खान बाबई ने मुगल शासक हुमायूं की काफी मदद की थी, जिस से वह उन का पसंदीदा सैनिक बन गया था. इस के बाद मुगल दरबार में बहादुर खान को ही नहीं, उस के पूरे परिवार को तवज्जो दी जाने लगी थी.

इस के करीब 100 साल बाद जब शाहजहां बादशाह बने तो आधे से ज्यादा भारत पर मुगलों का कब्जा हो चुका था. इन्हीं 100 सालों में बाबई कबीले के लोगों का रसूख भी मुगल दरबार में काफी बढ़ गया था. ये शाहजहां के बहुत ज्यादा वफादार थे, इसलिए उन्होंने इन्हें काठियाड़ सहित समूचा गुजरात संभालने के लिए दे दिया था. बाबई कबीले के लोगों के रहते मुगलों को गुजरात को ले कर कभी किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई थी.

औरंगजेब के समय बाबई कबीला भारत में और भी ताकतवर हो गया था. यह वह समय था, जब गुजरात में बड़े ओहदों पर बाबई कबीले के लोग ही नियुक्त थे. औरंगजेब की मौत के बाद उस के द्वारा ढाए जुल्मों की वजह से मुगल साम्राज्य का पतन होने लगा था. तमाम रियासत के राजाओं ने स्वयं को आजाद घोषित कर लिया था.

ऐसा ही कुछ गुजरात में भी हुआ था. वहां अलगअलग सूबों के जितने भी सूबेदार थे, उन्होंने अपनेअपने सूबों को आजाद रियासत और खुद को राजा घोषित कर लिया था. इस तरह हर प्रांत एक देश बन गया था और हर का एक राजा बन गया था. उस समय सौराष्ट्र का यह इलाका वाकई में सौ राष्ट्रों में बंट गया था. जूनागढ़ से अहमदाबाद जाने में 60 से 65 राज्यों से हो कर गुजरना पड़ता था.

इस राजनीतिक उठापटक का लाभ उठा कर बाबई कबीले के सरदारों ने भी जूनागढ़, बैलासिंधौर और राधौपुर पर अपनी हुकूमत कायम कर ली. कभी कबीलों में रहने वाले बाबई कबीले के लोग 3 राज्यों के नवाब बन गए थे. 3 हजार वर्गमील में फैला जूनागढ़ उस समय गुजरात की सब से बड़ी रियासत थी. जूनागढ़ कितना महत्त्वपूर्ण था, इस का अंदाजा थोड़ा और पीछे जाने से पता चल सकता है.

कहा जाता है कि जूनागढ़ का इतिहास करीब 2 हजार साल पुराना है. यहां का गिरनार पर्वत हिंदू, जैन और बौद्ध, तीनों धर्मों में पवित्र माना गया है. सम्राट अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि मौर्य काल में गिरनार पर्वत बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र था. नौवीं सदी में यहां चूड़ासमा राजपूतों का शासन था, जिन्होंने गिरनार पर्वत के प्रवेश द्वार पर ऊपरकोट किला बनवाया था.

ऊपरकोट किले के नाम पर ही इस शहर का नाम जूनागढ़ पड़ा. जूनागढ़ यानी कि पुराना किला. यहां प्राचीन पवित्र सोमनाथ मंदिर था और उत्तर में द्वारिका नगरी. जूनागढ़ अरब सागर के किनारे था. यहां 2 बंदरगाह थे, जिस से यह इलाका समुद्री व्यापार के लिए भी काफी महत्त्वपूर्ण था.

15वीं सदी तक यहां चूड़ासमा राजपूतों का शासन रहा. सन 1450 में जूनागढ़ के राजा बने थे मांगलिक चूड़ासमा. लेकिन तब दुनिया जूनागढ़ को भक्त नरसिंह मेहता के नाम से जानती थी. बताया जाता है कि यह वही नरसिंह मेहता थे, जिन की बेटी नानीबाई का भात भरने खुद द्वारिकाधीश कृष्ण को आना पड़ा था. नरसिंह मेहता अपनी भक्ति के कारण दुनिया भर में मशहूर थे.

सुखसंपन्नता और भक्ति जूनागढ़ में सब कुछ था, इसलिए आसपास के राजाओं की नजरें भी इस रियासत पर जमी थीं. तब जूनागढ़ गुजरात से अलग था. गुजरात के शासक महमूद शाह बेगड़ा ने सन 1450 में आक्रमण कर के इसे जीत लिया था.

लेकिन तब तक पुर्तगाली यहां आ चुके थे. दीव का इलाका उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया था और व्यापार करने लगे थे. इसलिए महमूद बेगड़ा और पुर्तगालियों के बीच कई बार युद्ध हुआ. पुर्तगालियों को हराने के लिए महमूद बेगड़ा ने मिस्र के राजाओं से दोस्ती की थी और वहां से बड़ीबड़ी तोपें खरीदी थीं, जो आज भी जूनागढ़ में रखी हैं. लेकिन इन तोपों को ला कर भी महमूद बेगड़ा पुर्तगालियों को हरा नहीं सका था.

इस तरह दीव पर पुर्तगालियों का ही कब्जा बना रहा, लेकिन बेरावल का पोर्ट जूनागढ़ के पास था. बाबई नवाबों ने बेरावल सहित अनेक छोटेछोटे पोर्ट डेवलप कराए और समुद्र से व्यापार करना शुरू कर दिया. देखते ही देखते जूनागढ़ ने खूब पैसा कमाया और वह एक अमीर रियासत बन गई.

साल 1870 में जूनागढ़ के तीसरे नवाब बने महाबत खान द्वितीय. कहा जाता है कि उन्होंने जूनागढ़ में स्कूल और सड़कें बनवाईं. इस तरह उन्होंने अपनी रियासत का खूब विकास किया.

जूनागढ़ में बहुत जंगल थे, जिसे गिर का जंगल कहा जाता था, जिस में बहुत शेर पाए जाते थे. लगातार जंगलों की कटाई और शिकार की वजह से यहां के शेर घटते जा रहे थे. इन्हें बचाने के लिए वहां के नवाब महाबत खान ने कानून बनाया कि बिना उन की परमीशन के इन शेरों का शिकार कोई नहीं करेगा.

सन 1890 में महाबत खान द्वितीय के निधन के बाद उन का एक बहुत ही खूबसूरत मकबरा बनवाया गया. यह मकबरा आज भी देश के सब से खूबसूरत मकबरों में एक माना जाता है. उन की मौत के बाद नवाब बने मोहम्मद महाबत खान तृतीय.

नवाब महाबत खान तृतीय को दौलत, शोहरत और शौक विरासत में मिली थी. राजकाज में उन्हें ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. उन्हें अगर असली प्यार किसी से था तो वह था अपने कुत्तों से. वह ज्यादा समय अपने कुत्तों के साथ बिताते थे या फिर विदेशों में छुट्टियां मनाते थे. राजकाज का सारा काम वहां के दीवान देखते थे.

कहा जाता है कि 1947 में पुराने दीवान काफी बीमार हो गए. तब शाहनवाज भुट्टो को वहां का नया दीवान बनाया गया था. भुट्टो जूनागढ़ का राजकाज संभाल रहे थे और नवाब महाबत खान यूरोप में छुट्टियां मना रहे थे.

जब भारत की आजादी का ऐलान  हुआ था. नवाब महाबत खान तृतीय हिंदुस्तान में ही रहना चाहते थे. लेकिन भुट्टो और मोहम्मद अली जिन्ना जूनागढ़ के बदले कश्मीर की सौदेबाजी करना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने नवाब का दिमाग ऐसा घुमाया कि उन्होंने ठीक आजादी वाले दिन यानी 15 अगस्त को ही जूनागढ़ का पाकिस्तान में विलय का ऐलान कर दिया था.

वी.पी. मेनन, सरदार वल्लभभाई पटेल और जूनागढ़ के लोगों ने नवाब महाबत खान तृतीय को समझाने की बहुत कोशिश की. शायद नवाब मान भी जाते, पर भुट्टो ने किसी को नवाब से मिलने ही नहीं दिया. आखिर जनता विद्रोह पर उतर आई.

जूनागढ़ की जनता ने अपनी एक सेना बनाई, जिस का नाम था आरजी हुकूमत. आरजी हुकूमत ने एकएक कर के पूरे जूनागढ़ पर कब्जा कर लिया. हालात बद से बदतर हो गए कि जूनागढ़ को भुट्टो के भरोसे छोड़ कर नवाब 25 अक्तूबर, 1947 की आधी रात को पाकिस्तान भाग गए.

कहा जाता है कि नवाब के पास एक ही विमान था, जबकि सामान बहुत ज्यादा था. ऐसे में देखने वाली बात यह थी कि वह क्या ले कर जाने वाले थे और क्या छोड़ कर जाने वाले थे. लेकिन दुनिया के लोग तब दंग रह गए, जब वह बेगमों को छोड़ कर कुत्तों को अपने विमान में साथ ले गए थे. यह बात अगले दिन बौंबे समाचार की सुर्खियां भी बनी कि नवाब के साथ कौनकौन गया.

उस समय कराची पाकिस्तान की राजधानी था. नवाब को उसी शहर में पनाह दी गई. दूसरी ओर जूनागढ़ में आरजी हुकूमत नवाब के महलों तक पहुंच चुकी थी. लेकिन महल तो भुट्टो के हवाले थे और भुट्टो समझ गए थे कि जूनागढ़ हाथ से निकल चुका है.

नवाब ने कराची से भुट्टो को तार द्वारा संदेश भेज कर साफ कहा था कि उन की प्रजा के साथ किसी भी तरह का खूनखराबा नहीं होना चाहिए. इसलिए वह शांतिपूर्वक जूनागढ़ का भारत में विलय करवा दें.

ऐसा नहीं था कि नवाब महाबत खान को जूनागढ़ की जनता से प्यार नहीं था, वह अपनी जनता से बहुत प्यार करते थे. जूनागढ़ का नवाब मुसलिम था, इस के बावजूद हैदराबाद और बंगाल की तरह वहां दंगे नहीं हुए थे. यहां के बाबई नवाबों ने कभी हिंदुओं को परेशान नहीं किया था.

लेकिन भुट्टो और जिन्ना ने नवाब महाबत खान का दिमाग ऐसा घुमाया था कि उन्होंने एक गलत निर्णय ले लिया. इस के बावजूद उन्होंने पाकिस्तान से ही अपील की थी कि भारत जूनागढ़ को अपने कब्जे में ले ले. इस के बाद सरदार पटेल ने जूनागढ़ जा कर वहां की जनता की राय ले कर जूनागढ़ का विलय भारत में कर लिया था. इस तरह शाहनवाज भुट्टो की चाल पूरी तरह फेल हो गई थी, जिस के बाद उन्हें पाकिस्तान भागना पड़ा था.

नवंबर,1947 में भुट्टो पाकिस्तान पहुंचे तो नवाब के उलट उन्हें बहुत बड़ी जमीन दी गई. इस के अलावा मुल्क की राजनीति में भी उन्हें काफी तरजीह मिली. भुट्टो काफी तेजतर्रार थे, जबकि नवाब काफी सीधेसादे थे, इसलिए भुट्टो के आगे उन्हें किसी ने नहीं पूछा.

आगे चल कर इन्हीं शाहनवाज भुट्टो के बेटे जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, जबकि नवाब महाबत खान पेंशन पर गुजारा करते रहे. आज भुट्टो की चौथी पीढ़ी राजनीति में है और करीब डेढ़ सौ करोड़ की संपत्ति उन के पास है.

वहीं नवाब महाबत खान के वंशज को पाकिस्तान में कोई जानता तक नहीं है. उन के वंशज आज भी अपने दादा को भारत छोड़ने के लिए कोसते हैं. नवाब महाबत खान के वंशज ही नहीं, जितने अन्य मुसलिम शासक भारत छोड़ कर चले गए थे, उन सभी के वंशज अपने पूर्वजों को कोस रहे हैं.

शहजादी की अधूरी मोहब्बत

उस दिन शाम होतेहोते किले की दिन भर की चहलकदमी कुछ कम हो चुकी थी. दिन भर की यात्रा के बाद सूरज भी छिप चुका था, जिस की वजह से अंधेरा अपने पैर पसारने लगा था.

सूरज छिपने से हवा सर्द हो गई थी. इस तरह के खुशनुमा मौसम में जैबुन्निसा पलंग पर बैठी अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी. क्योंकि उस समय उस के कमरे में किसी के आने का खतरा नहीं था. अपने जज्बातों को कागज पर उतारते समय वह इस तरह खयालों में खो जाती कि उसे होश ही न रहता कि वह कहां है.

अभी उस ने 4 लाइनें ही लिखी थीं कि उसे लगा कि उस के कमरे की ओर कोई आ रहा है. पदचाप से तो यही लग रहा था कि आने वाला कोई उम्रदराज इंसान है. और वह उसी के कमरे की ओर बढ़ा चला आ रहा था. जैबुन्निसा को लगा कि कहीं अब्बा हुजूर तो नहीं आ रहे हैं. अब्बा हुजूर का खयाल आते ही वह सहम उठी. उस ने कलमदवात और कागज झट तकिए के नीचे छिपा दिए और पलंग पर आंखें मूंद कर इस तरह लेट गई, जैसे वह आराम कर रही हो.

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औरंगजेब की सब से बड़ी संतान जैबुन्निसा को वैसे तो अपने अब्बा हुजूर और अम्मी दिलरस बानो बेगम का खूब प्यार मिलता था. उस का जन्म 15 फरवरी, 1638 को दौलताबाद में हुआ था. तब औरंगजेब बादशाह नहीं था. वह अपनी इस बेटी से बेइंतहा प्यार करता था. अपनी इस बेटी की वजह से उस ने कई लोगों को माफी दे दी थी. वे ऐसे लोग थे, जिन्होंने औरंगजेब की मुखालफत की थी. इस से जैबुन्निसा के प्रभाव को समझा जा सकता है.

जैबुन्निसा हुस्न की मलिका ही नहीं थी, बल्कि बहुत कम उम्र में ही वह आलिमा और फाजिला भी हो गई थी. वह 7 साल की थी, तभी उसे कुरान याद हो गया था और वह हाफिजा बन गई थी. बेटी की इस उपलब्धि पर औरंगजेब ने खूब धूमधाम से जश्न तो मनाया ही था, उसे 30 हजार सोने के सिक्के इनाम में दिए थे.

यही नहीं, उस ने कुरान सिखाने वाली उस्ताद को भी 30 हजार सोने के सिक्के इनाम दिए थे. उस दिन सार्वजनिक अवकाश भी घोषित कर दिया गया था.

इस के बाद जैबुन्निसा ने फारस के विद्वान सईद अशरफ मंजधरानी से दर्शन, गणित, खगोलशास्त्र, इतिहास व साहित्य की पढ़ाई की थी. अशरफ एक फारसी कवि थे. काफी कम उम्र में ही जैबुन्निसा ने अपने महल की लाइब्रेरी को खंगाल डाला था.

औरंगजेब उसे 4 लाख अशर्फियां खर्च करने के लिए देता था. इन पैसों से उस ने ग्रंथों का आम भाषा में अनुवाद कराना शुरू कर दिया था. जैबुन्निसा काफी सादगी से रहती थी, इसलिए अपनी इस बुद्धिमान बेटी से औरंगजेब को काफी लगाव था. औरंगजेब उस की पढ़ाई में रुचि देख कर बाहर से किताबें मंगवाने लगा था.

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जैबुन्निसा 14 साल की थी, तभी शेरोशायरी लिखने लगी थी. कहा जाता है कि उस समय उस के पास बहुत बढिय़ा लाइब्रेरी थी. दरबार के पढ़ेलिखे लोगों से उस के संबंध थे, इस में कई कवि और साहित्यकार भी शामिल थे.

शेरोशायरी और कविताएं लिखने के अलावा जैबुन्निसा को संगीत में भी रुचि थी. उस समय उस की गिनती एक बेहतरीन गायिकाओं में होती थी. वह बहुत ही दयालु स्वभाव वाली थी, इसलिए वह दूसरों की मदद करने में विश्वास रखती थी.

वक्त के साथ जैबुन्निसा एक बेहतरीन शायरा हो कर उभरी. फिर तो उसे मुशायरों में भी बुलाया जाने लगा. सख्तमिजाज और कट्टर औरंगजेब को यह सब बिलकुल पसंद नहीं था. इसलिए जैबुन्निसा अब्बा हुजूर से छिप कर मुशायरों में जाने लगी थी. इस में उस का सहयोग करते थे औरंगजेब के दरबारी कवि.

जैबुन्निसा शेरोशायरी फारसी में लिखती थी. यह उस के अब्बा हुजूर को पसंद नहीं था, इसलिए वह अपने नाम से न लिख कर नाम बदल कर ‘मखफी’ नाम से लिखा करती थी.

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लंबे कद की हिरनी जैसी चाल वाली जैबुन्निसा को कविताओं के साथ फैशन की भी गहरी समझ थी. आमतौर पर वह बहुत सादगी से रहती थी, पर जब वह मुशायरों में जाती थी तो बिलकुल अलग ही ढंग से तैयार हो कर जाती थी.

तब वह एकदम सफेद कपड़े पहनती थी और उस पर सफेद मोतियों की माला डाला करती थी. मोतियों के अलावा वह कोई अन्य रत्न शरीर पर नहीं डालती थी. कहा जाता है कि जैबुन्निसा ने एक खास तरह की कुरती का डिजाइन खुद तैयार किया था, जो तुर्कमान में पहनी जाने वाली कुरती से काफी मिलतीजुलती थी. उसे ‘अन्याया कुरती’ कहा जाता था.

एक बार जैबुन्निसा किसी मुशायरे में बुंदेलखंड गई थी तो उस की नजर वहां के महाराजा छत्रसाल पर पड़ी. छत्रसाल की वीरता के बारे में उस ने पहले ही बहुत कुछ सुन रखा था.

4 मई, 1649 को पैदा हुए महाराजा छत्रसाल बुंदेला का एक महाप्रतापी राजपूत योद्धा था. उस ने मुगल बादशाह औरंगजेब को हरा कर बुंदेलखंड में अपने स्वतंत्र बुंदेला राज्य की स्थापना की थी. जैबुन्निसा की नजर मुशायरे में आए महाराजा छत्रसाल पर पड़ी तो वह उसे देखती ही रह गई. वह उसे देखती ही नहीं रह गई, बल्कि उस वीर योद्धा की कदकाठी और खूबसूरती पर उन का दिल आ गया.

वह अपने दिल की बात सीधे महाराजा से कह नहीं सकती थी, इसलिए उस ने उसे एक खत लिखा था. महाराजा का कोई जवाब आता, उस के पहले ही न जाने कैसे इस बात की जानकारी औरंगजेब को हो गई थी.

जो आदमी हिंदुओं से इतनी नफरत करता रहा हो और जो हिंदू होने के अलावा उस का दुश्मन रहा हो, उस से उस की बेटी प्यार करे, भला वह कैसे बरदाश्त करता. महाराजा छत्रसाल बुंदेला से औरंगजेब की कट्टर दुश्मनी थी. धर्म के मामले में भी वह बेहद कट्टर था. इसलिए उसे यह कतई मंजूर नहीं था कि उस के परिवार का कोई सदस्य किसी हिंदू राजा से संबंध रखे.

लिहाजा औरंगजेब ने बेटी को खूब फटकारा था और साफ शब्दों में कहा था कि अब वह उस का नाम लेने की कौन कहे, उस के बारे में सोचेगी भी नहीं.

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इस तरह जैबुन्निसा को अपने पहले प्यार को भुलाना पड़ा. उस के लिए यह आसान नहीं था. पर उस ने अपना ध्यान शेरोशायरी और कविताओं में लगाया. जैबुन्निसा का विवाह बचपन में ही उस के ताया के बेटे सुलेमान शिकोह से तय कर दिया गया था. लेकिन सुलेमान की हत्या हो जाने से उस का विवाह उस के साथ नहीं हो सका था.

बेटी का मन इधरउधर न भटके, इसलिए औरंगजेब उसे अपने साथ दरबार में बैठाने लगा था. बेटी की काबिलियत से वह वाकिफ तो था ही, इसलिए वह साम्राज्य के राजनीतिक मामलों में उस से सलाह लेता था. इतना ही नहीं, साम्राज्य के अहम मुद्दों पर वह उस से विचारविमर्श भी करता था. ऐसे में ही एक दिन जैबुन्निसा दरबार में बैठी थी. पूरा दरबार भरा हुआ था. औरंगजेब उस भरे दरबार में मराठा सरदार छत्रपति शिवाजी का इंतजार कर रहा था.

थोड़ी देर में जयसिंह का बेटा रामसिंह शिवाजी को ले कर दरबार में पहुंचा तो दरबार में सन्नाटा पसर गया. सभी की नजरें शिवाजी पर टिक गई थीं, क्योंकि यह वह शख्स था, जिस ने मुगल साम्राज्य का विरोध किया था. मुगल बादशाह औरंगजेब को चुनौती दी थी.

इस मुलाकात में औरंगजेब ने शिवाजी को एक निश्चित दूरी तक ही आगे बढऩे का आदेश दिया. अपने तय स्थान पर पहुंच कर शिवाजी ने बादशाह को 30 हजार अशर्फियां नजराना देने के साथ 3 बार झुक कर सलाम किया. यह पहली बार हुआ था, जब शिवाजी ने किसी अन्य धर्म के बादशाह को सलाम किया था.

जयसिंह ने शिवाजी से कहा था कि दरबार में उन्हें पूरा सम्मान मिलेगा. उन्हें वहां ऊंचे ओहदे वालों के बीच बैठाया जाएगा. पर मुलाकात के बाद शिवाजी को निम्न ओहदे वालों के बीच बैठाया गया, जिस से शिवाजी ने खुद को अपमानित महसूस किया. वह जान गए कि उन के साथ यह व्यवहार जानबूझ कर किया गया है.

वह अपने इस अपमान को बरदाश्त नहीं कर सके और इस के लिए उन्होंने भरे दरबार में नाराजगी व्यक्त कर दी. शिवाजी के नाराजगी व्यक्त करते ही दरबार में हड़कंप मच गया. औरंगजेब ने रामसिंह से कहा कि वह शिवाजी को दरबार से बाहर ले जाएं.

यह सब दरबार में झीने परदे के पीछे बैठी शहजादी जैबुन्निसा भी देख रही थी. शहजादी को शिवाजी के आने की खबर पहले ही मिल चुकी थी. शिवाजी के बहादुरी के किस्से उस ने सुन रखे थे. इसलिए उसे देखने की लालसा उस के मन में थी. उस समय शिवाजी 39 साल के थे और शहजादी जैबुन्निसा 27 साल की थी.

दरबार में शिवाजी की निडरता और मर्दाना सुंदरता देख कर वह उन से प्रभावित तो हुई ही, उन की ओर आकर्षित भी हुई. यही वजह थी कि उस ने एक बार फिर अपने अब्बा हुजूर से शिवाजी को दरबार में बुलाने को कहा. बादशाह मान भी गया.

इस बार शिवाजी को दरबार में आने का संदेश जैबुन्निसा ने खुद भेजा. शिवाजी आए तो पर इस बार उन्होंने बादशाह को सलाम नहीं किया. उन्होंने कहा कि वह एक शहजादे के रूप में पैदा हुए हैं, इसलिए वह गुलामों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते. इतना कह कर शिवाजी ने बादशाह के सिंहासन की ओर पीठ कर ली.

यह बात औरंगजेब को बहुत ही नागवार गुजरी. वह कोई क्रूर आदेश देने ही वाला था कि शिवाजी ने कहा, ”मैं अपने आत्मसम्मान और मर्यादा के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता, भले ही मेरी जान क्यों न चली जाए.’’

औरंगजेब का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा. उस ने अपने सिपहसालार फुलद खान को आदेश दिया, ”शिवाजी को कैद कर के नजरबंद कर दो. इन पर सख्त पहरा बैठा दो.’’

शिवाजी को नजरबंद कर दिया गया. उन की कोठरी के सामने सख्त पहरा था. इस के बावजूद वह औरंगजेब के सिपहसालारों को चकमा दे कर फरार हो गए. कहा जाता है कि शिवाजी को फरार होने में जैबुन्निसा ने मदद की थी.

औरंगजेब को भी जैबुन्निसा पर शक था. यह भी कहा जाता है कि शहजादी ने शिवाजी के सामने प्रेम प्रस्ताव भी रखा था, लेकिन शिवाजी ने साफ इनकार कर दिया था. इस तरह शहजादी का यह दूसरा प्यार भी असफल हो गया था.

प्यार में दूसरी बार असफल होने के बाद शहजादी जैबुन्निसा फिर से पूरी तरह शेरोशायरी में डूब गई. लेकिन कट्टर औरंगजेब को कतई पसंद नहीं था कि उस की बेटी शेरोशायरी करे और महफिलों में भाग ले. उस की लिखी शेरोशायरी मर्दों की नजरों के सामने पढ़ी जाए और वे जैबुन्निसा से प्रभावित हो कर उस की ओर खिंचे चले आएं. लिहाजा जैबुन्निसा पर शेरोशायरी लिखने पर सख्त पाबंदी लगा दी थी.

एक ओर अब्बा हुजूर का हुक्म और दूसरी ओर जैबुन्निसा का शेरोशायरी से लगाव. इस बात को ले कर दिल और दिमाग में जंग चलती रही. इन पाबंदियों से जैबुन्निसा का दम घुटने लगा था. लेकिन कलम उस का साथ दे रही थी, वह मन की घुटन वह कलम से कागज पर उतार देती थी. इसलिए उस की घुटन नासूर नहीं बन पाई.

वह नाम बदल कर लिखती रही और मुशायरों महफिलों में जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा. कलम अपनी गति से चलती रही और मन का गुबार कागज पर उतरता रहा.

महफिलों में किसी को पता नहीं चल पाता था कि यह नौजवान, खूबसूरत कमसिन सी दिखने वाली शायरा, जो इतनी खूबसूरती और सलीके से बुलंद आवाज में नज्में पढ़ रही है, वह दिल्ली के बादशाह मुहिउद्दीन औरंगजेब आलमगीर की बेटी है. उस के कोमल गले में पड़ी मोतियों की माला उस की खूबसूरती को और बढ़ा देती थी.

पहनने ओढऩे, नज्म पढऩे और बात करने का सलीका ऐसा था कि किसी को भी अपना दीवाना बना ले. हीरेजवाहरात जड़े सोने के पिंजरे में इस शहजादी का दम घुटता था. यही शेरोशायरी की महफिलें उस के लिए औक्सीजन का काम करती थीं.

उन दिनों ऐसी महफिलों में शामिल होने वाले मशहूर शायर थे गनी कश्मीरी, नामतुल्लाह खान और अकील खां रजी. उस दौर में इन की गिनती मशहूर शायरों में होती थी. अपनी दिलकश शायरी की वजह से जैबुन्निसा की भी मांग बढऩे लगी थी. महफिलों में आ कर उन्हें सोने के पिंजरे से रिहाई का अहसास होता था. क्योंकि यहां वह अपने जज्बातों को कह पाती थी. उसे शायरों, मलंगों और सूफियों की यह महफिल बहुत अच्छी लगने लगी थी. इस के लिए वह दारा शिकोह की शुक्रगुजार रही थी.

जैबुन्निसा धीरेधीरे शेरोशायरी में डूबती चली गई. एक कहावत है न कि ‘बैठता नहीं जब तक आदमी मलंगों के बीच, दिल्लगी तो आती है, पर आशिकी नहीं आती.’

शहजादी जैबुन्निसा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. ऐसी ही महफिलों में एक दिन उस का सामना उस समय के लाहौर के गवर्नर और प्रसिद्ध शायर अकील खां रजी से हुआ.

रजी की शायरी ने ही नहीं, उन की शख्सियत ने भी शहजादी जैबुन्निसा को प्रभावित किया. अकील खां जितने अच्छे शायर थे, उस से कहीं ज्यादा उन की मर्दानी खूबसूरती थी. यही वजह थी कि वह महफिलें लूट लिया करते थे. अकील खां से मिल कर जैबुन्निसा को लगा कि उन्हें जिस चेहरे की तलाश थी, अब वह मिल गया है.

धीरेधीरे जैबुन्निसा का झुकाव अकील खां की ओर होने लगा. उस के मन में अकील खां के लिए दीवानापन पनपने लगा. एक मधुर, लेकिन अनकहा संबंध आकार लेने लगा.

नतीजा यह निकला कि ये अदबी मुलाकातें धीरेधीरे निजी मुलाकातों में तब्दील होने लगीं. समय के साथ इन का इश्क परवान चढऩे लगा. सूफी मिजाज दोनों शायरों की नजदीकियां बढऩे लगीं.

शहजादी जैबुन्निसा उस रत्न जड़े सोने के पिंजरे और ऐशोआराम से रिहाई चाहती थी, जहां उस का दम घुट रहा था. अब वह अकील खां की मोहब्बत के पिंजरे में हमेशाह मेशा के लिए कैद होना चाहती थी.

वह जब भी अकेली होती, अकील खां के बारे में ही सोचती रहती. लेकिन जब अब्बा हुजूर का खयाल आता तो हकबका कर उठ बैठती. खुद को बेबस महसूस करते हुए उस की आंखें भीग जातीं.

मोहब्बत का यह जुनून एक ओर ही नहीं था. अकील खां रजी जो उस समय औरंगजेब की लाहौर रियायत के गवर्नर थे, उन्हें भी कब शहजादी जैबुन्निसा से इश्क हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला. एक ओर उन का गवर्नर का ओहदा था तो दूसरी ओर जैबुन्निसा की मोहब्बत. एक तरह से वह अंगारों पर चल रहे थे.

किले में जैबुन्निसा की सेवा में लगी सेविकाएं जहां हंसती खिलखिलाती रहती थीं, वहीं शहजादी किसी अनहोनी से डरी सहमी गुमसुम रहती.

उस पर हमेशा इस बात की दहशत छाई रहती कि अगर उस के अब्बा हुजूर को उस की शेरोशायरी और मोहब्बत के बारे में पता चल गया तो कयामत ही आ जाएगी. वह न उसे बख्शेंगे और न अकील खां को. एक ओर उस पर यह दहशत छाई रहती तो दूसरी ओर वह महफिलों में भी जाती रही और अकील खां से मिलती भी रही.

जैसा कहा जाता है कि इश्क और मुश्क कभी छिपाए नहीं छिपते, वैसा ही कुछ शहजादी जैबुन्निसा के मामले में भी हुआ. आखिर जैबुन्निसा के इश्क की आग की आंच औरंगजेब तक पहुंच ही गई. जैसे ही बेटी के प्यार की खबर औरंगजेब को हुई, वह आगबबूला हो उठा. वह सीधे जैबुन्निसा के कमरे में पहुंच गया.

अब्बा हुजूर के कदमों की आहट सुन कर ही जैबुन्निसा ने कलमदवात और कागज छिपा दिए थे. जैसे ही औरंगजेब कमरे में पहुंचा, जैबुन्निसा पलंग से उठ कर खड़ी हो गई. औरंगजेब की आंखें गुस्से में अंगारे उगल रही थीं तो भौंहें तनी हुई थीं. उस ने बेटी से कुछ पूछने के बजाय सीधे अपना फैसला सुना दिया, ”मेरी नजरों के सामने से ले जाओ इस आजाद खयाल लड़की को. इसे ले जा कर सलीमगढ़ के उसी किले में कैद कर दो, जहां इस के महबूब ने दम तोड़ा था. जब तक मैं न कहूं, इसे बाहर न जाने देना. इसे वहीं कैद रखना.’’

इतना कह कर औरंगजेब गुस्साए सांप की तरह फुफकारता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ गया. औरंगजेब का हुक्म होते ही महल के अंदर सेविकाएं शहजादी का सामान संदूकों में रखने लगीं तो बाहर सेवक उसे सलीमगढ़ ले जाने की तैयारी करने लगे. जबकि शहजादी पर अब्बा हुजूर के इस हुक्म का कोई असर नहीं हुआ.

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वह कमरे की खिड़की के पास बैठी खुले आसमान में उड़ते परिंदों को निहार रही थी. वह उन्हें देखते हुए यही सोच रही थी कि उस से अच्छे तो ये परिंदे हैं, जो आजादी से जहां मन होता है आते जाते हैं, प्यार करते हैं. यह देख कर उस ने जो तोता पाल रखा था, उस का पिंजरा उठाया और उसे आजाद कर दिया. खुला आसमान पा कर वह पंख फडफ़ड़ाते हुए उडऩे लगा. शहजादी उसे तब तक देखती रही, जब तक वह उस की नजरों से ओझल नहीं हो गया.

वह उसी के बारे में सोचते हुए खिड़की के पास बैठी थी कि तभी पीछे से एक सेविका ने आवाज दी, ”शहजादी.’’

खयालों में डूबी शहजादी ने शायद उस की आवाज सुनी नहीं. कोई जवाब न पा कर सेविका ने दोबारा आवाज दी, ”शहजादी.’’

बिखरे बालों को समेटते हुए शहजादी जैबुन्निसा ने पलट कर सेविका की ओर देखा, ”क्या बात है?’’

”शहजादी बादशाह सलामत ने आप को सलीमगढ़ जाने का हुक्म दिया है,’’ सेविका ने कहा.

”लेकिन क्यों?’’ शहजादी ने पूछा.

सेविका इस बात का क्या जवाब देती. घबराई सेविका ने कहा, ”बस, बादशाह सलामत का हुक्म है.’’

सफर के सामान के साथ जरूरत का भी सामान घोड़ा गाडिय़ों पर लादा जाने लगा. इस के बाद सिपाही शहजादी को सलीमगढ़ के उस किले की ओर ले कर चल पड़े, जहां उस के प्रेमी अकील खां रजी को हाथियों से कुचलवा कर तड़पा तड़पा कर मौत की सजा दी गई थी.

एक उदास काफिला सलीमगढ़ की ओर चला जा रहा था. कहार उदासी से शहजादी की डोली लिए चल रहे थे. वह राह भी उदास थी, जिस राह से शहजादी का यह काफिला गुजर रहा था.

आखिर यह काफिला सलीमगढ़ पहुंच गया, जहां न तो आगरा जैसी चहलपहल थी और न रौनक. किला सुनसान था. वहां सिपाहियों के अलावा और कोई नहीं था. वहां न दरबार था और न दरबारी. चारों ओर सन्नाटा पसरा था. किला भूत बंगले जैसा लगता था.

जैबुन्निसा ने किले में प्रवेश किया और उस कमरे की ओर बढ़ गई, जो उस के रहने के लिए बताया गया था. साथ आए सेवकों ने शहजादी का सामान ला कर अंदर रखा तो सेविकाओं ने उसे करीने से रखना शुरू किया.

दिन गुजर गया. रात होते ही शहजादी जब अकेली पड़ी तो उसे लगा कि अब बाकी की जिंदगी यहीं बीतनी है. उस के अब्बा हुजूर ने उसे प्यार करने की यही सजा दी है. वह अतीत में खो गई. उसे वे बातें याद आने लगीं, जो उस ने अब तक बचपन से देखी थीं.

इतिहास गवाह है कि बादशाहत को पाने के लिए मुगल सम्राट कभी अपनों का भी खून बहाने में नहीं हिचके. इन में औरंगजेब तो सब से बदनाम माना जाता है.

अपनी बीमारी की वजह से शाहजहां विरासत की हिफाजत के लिए चिंतित था. एक दिन इसी खयाल में डूबे बादशाह के मन में आया कि क्यों न वह अपने बेटे दारा को ही दिल्ली की गद्दी सौंप दे, क्योंकि वह बुद्धिमान होने के साथसाथ सुलझा और अमनपसंद भी है.

शाहजहां को अपना यह विचार उचित लगा और उस ने दारा को बुला कर कहा, ”मैं चाहता हूं कि मेरे जिंदा रहते तक तुम दिल्ली की गद्दी को संभालो. जब तक मैं जिंदा हंू, तब तक तुम दिल्ली के बादशाह रहो.’’

दारा चुपचाप अब्बा हुजूर का आदेश सुनता रहा. उस के अब्बा हुजूर ने उस से जो कहा, इस बारे में उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. इतना कह कर शाहजहां ने आगे कहा, ”अब तुम दिल्ली को देखो. मैं आगरा जाना चाहता हूं. इस के लिए तैयारी करो.’’

शाहजहां ने तो दारा को दिल्ली संभालने का आदेश दे दिया, लेकिन उस के मन में अनेक सवाल उठ रहे थे. आगरा जाने की तैयारी कर रहे शाहजहां से दारा ने उलझन में कहा, ”अब्बा हुजूर, मैं इस तरह के फैसले को कैसे मान लूं, जिस में पूरे परिवार की सहमति न हो.’’

बूढ़े हो चुके शाहजहां ने दारा की ओर देखा तो उस ने आगे कहा, ”इस तरह का कोई भी फैसला लेने से पहले आप को हमारे भाइयों से राय लेनी चाहिए थी. क्योंकि हो सकता है आप का यह फैसला हमारे भाइयों को मंजूर न हो. क्या आप ने इस बारे में शुजा, औरंगजेब और मुराद से कोई बात की है?’’

”मैं ने इस की कोई जरूरत नहीं समझी.’’ शाहजहां ने स्पष्ट शब्दों में कहा, ”अभी तो मैं ही बादशाह हंू. जो फैसला लेना होगा, मैं ही लूंगा और उसे सभी को मानना होगा.’’

”अब्बा हुजूर, आप का यह फैसला हमारे भाइयों में फूट की वजह बन सकता है. इस से किले में बगावत हो सकती है.’’ दारा ने शंका व्यक्त की.

बेटे की बात बादशाह शाहजहां चुपचाप सुनता रहा. दारा का सोचना गलत नहीं था. जैसा बादशाह का सोचना था कि दारा समझदार और बुद्धिमान है तो यह बात सच थी. वह समझदार और बुद्धिमान था, तभी उस ने अपने अब्बा हुजूर से यह बात कही थी. बेटे की बात सुन कर बादशाह सोच में पड़ गया.

क्योंकि दूसरी ओर जैसे ही यह बात लोगों के कानों तक पहुंची, सचमुच दारा का खयाल सच होता नजर आने लगा. जल्दी ही हकीकत सामने नजर आती लगी, जिस का दारा को अंदेशा था. जब इस बात की जानकारी औरंगजेब को हुई तो उसे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगा. शुजा और मुराद भी इस बात से नाराज थे, लेकिन अब तो जो होना था, वह हो गया था. शाहजहां बाकायदा दिल्ली में ऐलान कर चुका था.

शुजा और मुराद तो कुछ नहीं बोले, पर औरंगजेब चुप नहीं रह सका. उस ने बादशाह शाहजहां से गुस्से में आ कर कहा, ”दारा बादशाह बनने लायक नहीं है. वह काफिर है. वह हिंदू धर्मग्रंथों की कुरान से बराबरी करता है. उस का कहना है कि कुरान और गीता एक जैसे हैं. वह गीता का अनुवाद कर रहा है. जनता उसे कभी माफ नहीं करेगी. मुसलमान तो उसे काफिर कहते हैं.’’

औरंगजेब ने अपनी बात इस तरह कही थी, जैसे वह उसे उसी समय हटा देगा. बहन जहांआरा ने उसे बहुत समझाया, पर वह कुछ समझने को तैयार नहीं था. वह अपनी जिद पर अड़ा था. क्योंकि उस के मन में जो शक था, वह दूर नहीं हो रहा था. जिस का एक ही अंत था खूनखराबा.

आखिर उस का शक सच साबित हुआ. गद्दी के लिए लड़ाइयां शुरू हो गईं. कल तक जो साथ देने वाले थे, आज वे दुश्मन के साथ खड़े थे. आखिर औरंगजेब ने अपने 2 भाइयों शुजा और मुराद को ठिकाने लगवा दिया. अब वह दारा के खून का प्यासा था. वह उसे तड़पा तड़पा कर मारना चाहता था.

दरअसल, औरंगजेब दिल्ली की जनता को यह जताना चाहता था कि दिल्ली का बादशाह दारा जैसा काफिर नहीं, एक सच्चा और कट्टर मुसलमान है, जो अपने भाइयों और बाप का नहीं तो किसी और का क्या हो सकता है.

उस ने क्रूरता से दारा की हत्या कराने का पूरा इंतजाम कर लिया. उस के बाद उस ने शाहजहां से स्पष्ट कह दिया था कि वह उस की ताजपोशी का दोबारा ऐलान कराएं. उस ने अपने सैनिकों से कह दिया कि दारा का सिर धड़ से अलग कर दो और दिल्ली में घोषणा कर दो कि अब दिल्ली का बादशाह औरंगजेब है.

फिर तो एक थाली में दारा का सिर सजा कर दरबार में औरंगजेब के सामने पेश किया गया. औरंगजेब ने उस की ओर नफरत से देखते हुए कहा, ”इसे हटाओ मेरी नजरों के सामने से. इसे ले जा कर दफन कर दो.’’

इस तरह मुगल खानदान के एक सूफी मिजाज बादशाह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. भाई का कटा सिर देख कर औरंगजेब ने राहत की सांस ली.

भाई को मौत के घाट उतरवा कर उस ने एक किला और फतह कर लिया. लेकिन अभी उस के कलेजे की आग ठंडी नहीं हुई थी. उस की लड़ाई चलती रही, जिस में उस की बड़ी बेटी जैबुन्निसा से जिस सुलेमान शिकोह से उस की शादी होने वाली थी, वह भी मारा गया. सुलेमान की मौत का दुख जैबुन्निसा को भी बहुत हुआ था. सुलेमान उस का होने वाला पति ही नहीं, तायाजाद भाई और एक सरपरस्त बेटा भी था.

बाप बेटे को मौत के घाट उतारने के बाद आगरा तो सूना हो ही गया था, इस की दहशत दिल्ली तक पहुंच गई थी. वसीयत की इस जंग में जैबुन्निसा को तबाही साफ दिखाई दे रही थी. उस ने देखा कि गुस्सा किस तरह आदमी की सोचने समझने की शक्ति को खत्म कर देता है.

उस के अब्बा हुजूर ने गद्दी के लिए अपनों का खून करा दिया था. कितने बेरहम हैं वह. यह सोच कर उस ने अंधेरे में भी आंखें भींच लीं. उसे किसी अनहोनी का डर बारबार सता रहा था. उस का शरीर कांप उठा कि न जाने अब किस की बारी है.

वह अपने आशिक की जिंदगी की खैर मांगने लगी थी. अचानक औरंगजेब दीवानखाने में दाखिल हुआ. उस ने अपने खास सिपहसालारों को हुक्म दिया कि वे लाहौर जाने की तैयारी करें.

जैसा बादशाह औरंगजेब का हुक्म हुआ, सिपहसालारों ने वैसा ही किया. बादशाह का फरमान ले कर लाहौर के लिए रवाना हो गए. लाहौर के गवर्नर अकील खां रजी को सलीमगढ़ बुलाया गया था.

एक तरह का डर तो अकील खां के मन में भी था. क्योंकि औरंगजेब के मिजाज से वह अच्छी तरह वाकिफ था. बादशाह के हुक्म का पालन करते हुए वह सलीमगढ़ पहुंच गया. उस की गवर्नरी तो बादशाह के उसी फरमान से ही चली गई थी. अब वह यह जानने के लिए बेचैन था कि आगे उस के साथ क्या होने वाला है?

दूसरी ओर जैबुन्निसा को उस की अपनी एक खास सेविका से पता चल गया था कि लाहौर के गवर्नर अकील खां रजी की गवर्नरी छीन कर उसे भी सलीमगढ़ के किले में बुलाया गया है. यह सुन कर शहजादी जैबुन्निसा का दिल धड़क उठा कि अब न जाने क्या होने वाला है. वह बेचैन हो उठी.

इस बेचैनी में कभी जैबुन्निसा कमरे से बाहर बरामदे में आती तो कभी फिर कमरे में घुस जाती. उस की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे.

वक्त गुजरता रहा, पर शहजादी की बेचैनी जरा भी कम नहीं हुई. लगभग घंटे भर बाद खबर आई कि अकील खां अब इस दुनिया में नहीं रहा. उसे बादशाह ने सलीमगढ़ के किले में हाथी से कुचलवा कर मरवा दिया है.

यह खबर सुन कर जैबुन्निसा चीख पड़ी. वह कहीं जा नहीं सकती थी, क्योंकि औरंगजेब ने उस पर सख्त पहरा बैठा रखा था. वह अपने कमरे में रोरो कर हलकान हुई जा रही थी. वह हार गई थी, उस की मोहब्बत हार गई थी. उस के अब्बा हुजूर की जिद जीत गई थी.

औरंगजेब ने अकील खां को उस की बेटी से मोहब्बत करने की सजा दे दी थी. उसे मरवा कर उस के कलेजे को ठंडक मिल गई थी. शायद बेटी को तड़पता देख उसे खुशी मिली थी.

अकील खां को याद कर के शहजादी के मुंह से चीख निकल गई. उस की चीख सुन कर सेविका दौड़ी आई, ”क्या हुआ शहजादी, कोई बुरा सपना देखा क्या?’’

”मुझे यहां से ले चलो शाहीन. मेरा यहां दम घुट रहा है.’’ बड़ी उम्मीद से जैबुन्निसा ने सेविका शाहीन की ओर देखा.

”शहजादी, अब आप को कहीं नहीं जाना. बादशाह सलामत के अगले हुक्म तक आप को यहीं रहना है,’’ शाहीन ने कहा.

वक्त गुजरता गया और इसी के साथ शहजादी जैबुन्निसा की बेचैनी कम होती गई. अकेले और अंधेरे में रहने की उस ने आदत सी डाल ली.

इसी कैदखाने को उस ने अपना आशियाना मान लिया. जिस तरह किसी परिंदे को जब पिंजरे में डाला जाता है तो शुरूशुरू में वह बाहर जाने के लिए फडफ़ड़ाता है. जब नहीं निकल पाता तो धीरेधीरे पिंजरे में रहने की आदत डाल लेता है. वैसा ही कुछ जैबुन्निसा के साथ भी था.

वक्त की गर्दिशों से जूझते हुए जैबुन्निसा ने धीरेधीरे सलीमगढ़ को अपना लिया था. इन तन्हाई के दिनों में उस ने अपना समय बिताने के लिए खूब शेरोशायरी लिखी.

तमाम परेशानियों से जूझते हुए उस ने इस कातिल सलीमगढ़ के किले में एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी बनवाई, जिस में कुरान, बाइबिल, हिंदू, बौद्ध, जैन धर्म ग्रंथ अनेक पौराणिक ग्रंथ, कहानियों की किताबें, फारसी, अरबी, अलबैरूनी ग्रंथ के अलावा तमाम किताबें मंगा कर इकट्ठा कराईं.

सलीमगढ़ के किले में बंदी जीवन जीते हुए शहजादी अपनी हकीकत की दुनिया से बहुत आगे निकल चुकी थी.

सलीमगढ़ किले में कैद शहजादी जैबुन्निसा ने 20 बरस गुजारे. उस की पूरी जवानी इसी कैदखाने में गुजर गई. यहीं उस की शायरी को सही राह मिली. यहां रह कर उस ने 5 हजार से भी ज्यादा गजलें, नज्में और रूबाइयां लिखीं. यहां वह कृष्णभक्ति में डूब गई और खुद को मीरा बना लिया. वह मीरा की ही तरह कृष्णभक्ति में ऐसी डूबी कि उसे खुद का ही होश न रहा.

धीरेधीरे वह बिखरती गई. दिल का दर्द कलम के जरिए कागज पर उतरता गया. लेकिन कट्टर और क्रूर औरंगजेब को बेटी पर कभी रहम नहीं आया. एक रोशनखयाल शहजादी का जीवन कैदखाने में गुजर गया.

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कभी अब्बा हुजूर की आंखों का तारा रही जैबुन्निसा का विवाह न हो सका. उसी कैदखाने में ऐसे ही 26 मई, 1702 को शहजादी जैबुन्निसा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. मौत के बाद उसे काबुली गेट के बाहर तीस हजारा बाग में दफना दिया गया. उस की मौत के बाद उस ने जो गजलें, नज्में और रूबाइयां लिखी थीं, उन का संकलन छपा, जिसे दीवानेमखफी के नाम से जाना जाता है.

राजा की मोहब्बत का साइड इफेक्ट

क्या महाराणा उदय सिंह निभा पाएंगे अपना वचन?

गोगुंदा के राजमहल में महाराणा उदय सिंह (दीवानजी) बीमारी से जूझ रहे थे. उन के पास के कक्ष में उन की सब से प्रिय छोटी  रानी धीरकंवर अपने विश्वासपात्र सामंतों के साथ विशेष सलाहमशविरा कर रही थीं.

उसी समय सामने बैठे एक वरिष्ठ सामंत ने विनम्रता से कहा, ‘‘महारानी सा, हम हर परिस्थिति में आप के स्वामिभक्त बने रहेंगे.’’

‘‘परिहास न कीजिए ठाकुर सा. सोनगरी जी के रहते हुए मैं भला महारानी कैसे हो सकती हूं.’’

‘‘जरूर हो सकती हैं, हमारा हृदय तो यही कह रहा है और समय आने पर मेवाड़ के सभी सिरदार और प्रजा भी आप को यही कहेंगे.’’

‘‘फिर भी हमें तो विश्वास नहीं होता.’’ धीरकंवर उन के मन की और बातें जानने के लिए बोलीं.

‘‘महारानी सा, हमें आप की कृपा पर सम्मान, पद और जागीरें मिलीं हैं. मौका आने पर हम आप के लिए अपनी जान तक न्यौछावर करने में पीछे नहीं हटेंगे.’’

यह सुन कर धीरकंवर ने लंबी सांस ली. वह गंभीर हो कर बोलीं, ‘‘हमें किसी पद की लालसा नहीं है, लेकिन हम दीवानजी के हित की बात सोचते हैं. खुद को राज्य का अधिकारी मानने वालों को आज दीवानजी के स्वास्थ्य की तनिक भी चिंता नहीं है. जब वह उन का खयाल नहीं रख रहे, तो राज्य का कैसे रखेंगे?’’

तभी एक सामंत ने कहा, ‘‘महारानी सा, इस के लिए तो कुंवर जगमाल पूरी तरह से योग्य हैं.’’

कुछ पल रुक कर धीरकंवर अपनी बात का प्रभाव देख कर आगे बोलीं, ‘‘जगमाल के जन्म से पहले ही दीवानजी ने कह दिया था कि उन के बाद उन का कुंवर ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा. इसलिए अधिकांश सिरदार उन से ईर्ष्या रखते हैं.’’

‘‘आप निश्चिंत रहें महारानीजी, हम कुंवर का साथ देने का वचन देते हैं.’’

‘‘सिरदारो, हमें आप पर पूरा विश्वास है, किंतु हमारी ममता हमारे हृदय को कमजोर कर देती है. इसलिए सोनगरीजी और प्रताप के बढ़ते प्रभाव को देख कर हमें कुंवर के भविष्य के प्रति शंका पैदा हो रही है.’’

‘‘आप किसी भी तरह की चिंता न करें महारानीजी दीवानजी का आशीर्वाद कुंवर के साथ है तो और लोग भी धीरेधीरे हमारे पक्ष में आ जाएंगे.’’

‘‘हमारी तरफ से कोई कमी नहीं आने दी जाएगी लेकिन परेशानी तो यह है कि दीवानजी का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा है.’’

‘‘धैर्य रखिए महारानीजी, आप पर आने वाली किसी भी विपदा का सामना हमारी तलवारें करेंगी.’’ इस के बाद भावनाओं के चक्रव्यूह में फंसे सामंतों ने कक्ष से प्रस्थान कर लिया.

पुत्र मोह के कारण सामंतों को धन व धर्म के मोह में उलझाने वाली रानी भी उन के जाते ही तेजी से उठीं और पति की सेवा के लिए उन के कक्ष में चली गईं. वह ऐसी नारी थी, जो अपने पति व पुत्र के लिए कुछ भी करने को तैयार थी. उन के अंदर त्याग, ममता और सेवा करने की भावना थी लेकिन इन सब के अलावा एक बात थी कि वह स्वार्थी थीं.

पुत्रमोह की वजह से वह षड्यंत्र रचने लग गई थीं. उन्हें पति द्वारा भावुकता में दिया गया वह वचन याद आ रहा था, जिस में उन्होंने उन के बेटे को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने को कहा था.

महाराणा उदयसिंह मुगलों के हाथों अपनी राजधानी चित्तौड़ गंवाकर कुंभलगढ़ में निवास कर रहे थे किंतु अस्वस्थ होने पर वह स्वास्थ्य लाभ पाने के लिए गोगुंदा आ गए थे. उन के चेहरे की कांति जैसे लुप्त हो गई थी. उन का शरीर भी असाध्य रोग से जर्जर हो चुका था.

अपने पलंग पर असहाय पड़े वह निरंतर करवटें बदल रहे थे. रानी धीरकंवर औषधि ले कर उन के कक्ष में पहुंची. कक्ष में पहुंचते ही उन्होंने दासियों को बाहर जाने का संकेत किया.

महाराणा को औषधि पिला कर वह उन के पांव दबाने लगीं. कुछ देर बाद रानी ने धीरे से पूछा, ‘‘स्वामी, आप ने अपना वचन पूरा करने का आश्वासन दिया था, किंतु अभी तक आप ने इस संबंध में…?’’

उन की बात पूरी होने से पहले ही वह बोले, ‘‘हम एक बार फिर कहते हैं रानी सा, आप एक बार इस पर फिर विचार कर लें. कुंवर जगमाल अपने दुर्बल कंधों पर संकटकालीन मेवाड़ का भार वहन नहीं कर सकेगा.’’ इतना कह कर वे हांफने लगे.

उन की बात सुनते ही रानी का चेहरा क्रोध से लाल हो गया. वह खुद पर नियंत्रण करते हुए बोलीं, ‘‘महाराज ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आप को किसी ने भ्रमित कर दिया है. आप खुद सोचिए, क्या जगमाल ने कई बार अपनी योग्यता का प्रदर्शन नहीं किया है? क्या उस ने राजनीति व शासन तंत्र का अध्ययन पूरा नहीं किया है? क्या वह सभी अस्त्रशस्त्रों का संचालन नहीं कर सकता? फिर क्या कमी है उस में?’’ उन्होंने कुछ पल रुक कर नम्र स्वर में कहा, ‘‘क्या हमें आप के द्वारा दिए गए वचन को फिर से याद दिलाना पड़ेगा?’’

‘‘नहीं प्रिये, याद दिलाने की जरूरत नहीं है. हम वचनबद्ध हैं परंतु…’’

‘‘वचन वचन होता है दीवानजी, उस के साथ किंतु परंतु नहीं होता.’’

‘‘प्रिये, आप हमारी तरह सोच कर देखिए, अकबर जैसा प्रबल शत्रु मेवाड़ का मान भंग करने के लिए गिद्ध दृष्टि लगाए बैठा है. ऐसी विषम परिस्थिति में परंपरा के विरुद्ध निर्णय लेने से आंतरिक स्थिति बिगड़ सकती है. फिर ऐसा करने पर मेवाड़ की प्रजा हमारी राज्य निष्ठा पर अंगुली नहीं उठाएगी?’’ तीव्र स्वर में बोलने के कारण वे हांफने लगे.

उन के तर्क से क्षुब्ध हो कर रानी ने तर्क दिया, ‘‘प्राणनाथ, ऐसा मेवाड़ में पहली बार नहीं हो रहा है. क्या महाराणा मोकल ज्येष्ठ कुंवर थे? क्या चूंडाजी ने ज्येष्ठ होते हुए भी पिताश्री के आदेश पर सिंहासन नहीं त्यागा था? मेरे पीहर जैसलमेर में राव केहर के ज्येष्ठ कुंवर केलणजी ने चौथे नंबर के कुंवर लक्ष्मणजी के लिए पिता के आदेश पर सिंहासन त्याग दिया था. आखिर आप को इस के लिए इतना संकोच क्यों हो रहा है? आप को प्रजा की नाराजगी की परवाह है लेकिन वचन की नहीं.’’

एक साथ इतने प्रश्न सुन कर महाराणा मौन हो गए फिर रानी को समझाते हुए बोले, ‘‘हम जानते हैं कि क्षत्रिय के जीवन में वचन से बढ़ कर कुछ नहीं है, पर आज परिस्थिति हमारे पक्ष में नहीं है. मेवाड़ का हृदय स्थल चित्तौड़ मुगलों के कब्जे में है. इन हालातों में चट्टान जैसा बलशाली शासक ही टिकेगा.’’

अपनी बात का प्रभाव देख कर महाराणा ने उत्साहित हो कर कहा, ‘‘ऐसे समय परंपरा से हट कर निर्णय करना आसान नहीं है क्योंकि आज प्रजा के मन में प्रताप का स्थान बन गया है इसलिए नवें नंबर के कुंवर जगमाल को प्रजा स्वीकार नहीं करेगी. हमारे फैसले के खिलाफ विद्रोह भी हो सकता है, क्या आप चाहती हैं कि जीवन के आखिरी समय में हमारी अवमानना हो?’’

इतने लंबे तर्कों का रानी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, वे हठ भरे स्वर में बोलीं, ‘‘हमें इन तर्कों से बहलाने की चेष्टा न करें, हम तो इतना जानते हैं कि आप ने हमें वचन दिया था कि हमारा पुत्र ही आप का उत्तराधिकारी होगा.’’

‘‘रानी सा, हमारी बात समझने का प्रयास कीजिए, भावी महाराणा का जीवन बहुत संघर्षपूर्ण होगा. हमें जगमाल की योग्यता पर बिलकुल भी संदेह नहीं है किंतु वह भविष्य की कसौटी पर प्रताप की तरह खरा नहीं उतरता है. अगर आप कहें तो हम उस के लिए राज्य की कुछ जागीरों का संघ बना देते हैं, सिंहासन के अधीन होते हुए भी वह संघ स्वतंत्र निर्णय कर सकेगा?’’

‘‘इतनी कृपा करने की आवश्यकता नहीं है स्वामी? बप्पा रावल के वंशज अपने वचन से विचलित हो सकते हैं, तो उन की कुलवधू उन को वचन मुक्त करती है. मैं अपने पुत्रों सहित अभी मेवाड़ से पलायन करती हूं. प्रणाम स्वामी… अच्छा विदा.’’ इतना कह कर रानी ने उन के चरण स्पर्श किए और कक्ष से बाहर जाने लगी.

यह देख महाराणा उदय सिंह तड़प कर उठ बैठे, ‘‘नहीं रानी सा… प्रिये, आप ऐसा नहीं कर सकती. एक बार रुक जाइए, आप को हमारी सौगंध.’’

महाराणा की करुण आवाज सुन कर रानी धीरकंवर के कदम दरवाजे के पास ही रुक गए. वह वहीं खड़ेखड़े फूटफूट कर रोने लगीं.

महाराणा ने कहा, ‘‘भाटियाणी सा, आप हमें मृत्यु शय्या पर असहाय छोड़ कर जा रही हैं, क्यों हमारी मृत्यु को और अधिक कष्टदायक बना रही हैं प्रिये? बोलिए.’’ रानी ने कोई जवाब नहीं दिया, वह रोए जा रही थीं.

वह कुछ क्षण रोती हुई रानी को देखते रहे फिर थके स्वर में बोले, ‘‘विद्वानों से सुना था कि 3 हठ बड़े मजबूत होते हैं, बाल हठ, राज हठ और त्रिया हठ लेकिन आज त्रिया हठ के आगे राज हठ हार गया. लौट आइए, हम अपना वचन अवश्य पूरा करेेंगे.’’ इतना कह कर वे खांसने लगे.

यह देख रानी पलंग की तरफ दौड़ पड़ी. सुराही से पानी ले कर उन्हें पिलाया. पानी पी कर वे हांफने लगे. उन की यह स्थिति देख रानी को अपनी कही बातों पर पश्चाताप हुआ. वह महाराणा के चरणों में गिर कर रोते हुए बोलीं, ‘‘हमें धिक्कार है स्वामी. हम ने आप का दिल दुखाया. हमें क्षमा कर दीजिए प्राणनाथ. हम से भारी भूल हो गई.’’ वह बारबार क्षमा मांगते हुए विलाप करने लगीं.

महाराणा ने सहज हो कर उन्हें चुप कराया और उठा कर गले लगा लिया. कुछ समय तक वृद्ध दंपति स्नेह वर्षा से भीगते रहे. रानी ने उठ कर उन्हें पलंग पर सुलाया और पांव दबाने लगीं. तभी महाराणा उदय सिंह बोले, ‘‘रानी सा हम अपना वचन पूरा करेंगे परंतु…’’

‘‘परंतु क्या प्राणनाथ?’’ रानी के मन में शंका का पहाड़ फिर उठ खड़ा हुआ.

‘‘प्रिये, हम जगमाल को हमारा उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा राज्यसभा में नहीं कर सकेंगे.’’

यह सुन कर रानी चौंक कर बोलीं, ‘‘ऐसा क्यों?’’ क्या आप को अपनी निर्णयशक्ति पर विश्वास नहीं रहा?’’

‘‘मर्म के वचन मत बोलो प्रिये, ये रूग्ण हृदय में कांटें की तरह चुभते हैं, आप जानती हैं कि मेवाड़ पति तो पूज्य एकलिंग है. हम तो बस उन के दीवान हैं. तब हम परंपरा के खिलाफ लिए गए निर्णय को कैसे सार्वजनिक कर सकते हैं? अब हमारे शरीर में इतनी शक्ति नहीं है कि विद्रोह की आवाज को निस्तेज कर सकें.’’

यह सुन कर रानी का मुंह लटक गया, वह टूटते स्वर में बोलीं, ‘‘जाने दीजिए स्वामी, हम आप को वचन की बेडि़यों से मुक्त करते हैं.’’ कह कर वह फिर से रोने लगीं.

यह देख महाराणा ने आहत हो कर कहा, ‘‘अब इन प्राणों का कोई विश्वास नहीं है जाने कब…’’ उन की बात पूरी होने से पहले ही रानी ने झट उन के मुंह पर हाथ रख दिया. बोलीं, ‘‘ऐसा न कहें स्वामी, हमारी उम्र भी आप को लग जाए.’’

मुंह से रानी का हाथ हटा कर उन्होंने कहा, ‘‘हम अपने मित्र सामंतों और कुलगुरु के माध्यम से जगमाल के राजतिलक की व्यवस्था कर देंगे. कल सुबह हम ने उन्हें बुलाया है. उसी समय हम जगमाल को महाराणा बनाने की घोषणा कर देंगे.’’

‘‘कुंवर के भी कुछ मित्र सामंत हैं, जो उन के लिए कुछ भी करने को तत्पर हैं.’’

‘‘अच्छी बात है, उन्हें भी आमंत्रित कर दीजिएगा, मगर याद रहे यह सब अति गोपनीय तरीके से होना चाहिए.’’

सुन कर रानी का चेहरा मारे प्रसन्नता से दमकने लगा. वह उत्साहित हो कर बोलीं, ‘‘जैसी आप की आज्ञा. वैसे हमें जल्दी नहीं है. यह काम आप स्वस्थ होने के बाद भी कर सकते हैं.’’

‘‘नहीं, आप का वचन हमारे अंत:करण पर बोझ बन गया है. इसलिए जितना जल्दी हो सके हम इस से मुक्त होना चाहते हैं. हमारी मृत्यु के बाद राजतिलक कैसे होगा, यह आप जानें.’’

‘‘यह आप कैसी बात कर…’’

‘‘अब हमें एकांत चाहिए.’’ कहते हुए महाराणा उदय सिंह ने पीठ फेर ली. उन का आशय जान रानी कक्ष से बाहर आ गईं. उन्होंने द्वार पर खड़े प्रहरी से कहा, ‘‘देखो बिना हमारी अनुमति के कोई भी महाराणा से मिलने न पाए.’’ प्रहरी ने आज्ञा पालन की सहमति देते हुए सिर झुका लिया.

अपने कक्ष में लेटे महाराणा उदय सिंह का चेहरा भावहीन था. उन की आंखें एक टक छत को घूर रही थीं और मस्तिष्क अतीत में विचरण कर रहा था. उन के सामने बचपन की शरारत भरी तसवीरें घूमने लगीं. उन रंगीन खुशियों के बीच से खौफनाक चेहरा उभरा. वह बनवीर था. महाराणा विक्रमादित्य की खून से सनी नंगी तलवार उस की तरफ बढ़ी, तभी उस के स्थान पर चंदन आ गया. वह कुछ समझ पाते उस से पहले ममतामयी पन्ना ने उसे अपनी तरफ खींच कर अपने पुत्र की बलि चढ़वा दी.

तभी गगनभेदी जयघोष हुआ, ‘‘परम प्रतापी महाराणा उदय सिंह की जय.’’ वे अपने घोड़े पर बैठे पाली से लौट रहे थे. पीछे आ रही पालकी में पाली नरेश अखैराज सोनगरा की 16 वर्षीय राजकुमारी उन की मांग भरे बैठी थी. वही उन की पटरानी जयवंत कंवर थीं.

अचानक आए हवा के झोंके ने उन का ध्यान भंग कर दिया. पानी पीने के बाद वह फिर से यादों के सागर में तैरने लगे. महल में धूम मची थी. चारों तरफ युवराज प्रताप के जन्म की खुशियां मनाई जा रही थीं. वह पटरानी जयवंत कंवर के पास बैठे अपने ज्येष्ठ पुत्र को आशीर्वाद दे रहे थे.

उन के भावहीन चेहरे पर मुसकान उभरी और दूसरे ही क्षण लुप्त हो गई. उन का प्रताप दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था. पुत्र के जन्म के बाद उन के राज्य की सीमाएं बढ़ने लगीं. कई छोटी रियासतें बड़ी आसानी से उन के राज्य में शामिल हो गईं. लग रहा था जैसे प्रताप चमत्कारी भाग्य ले कर जन्मा था.

उन की वीरता व तेज बढ़ता देख अनेक राजपूत शाखाओं के राजा और सामंतों ने उन्हें अपना जंवाई बना कर खुद को धन्य समझा. धीरेधीरे उन का राजवंश बढ़ने लगा. महाराणा सांगा के जीवित बचे एक मात्र उत्तराधिकारी का परिवार चंद्रकला के समान बढ़ने लगा.

जवानी की उमंगों के बीच उन के कई विवाह हुए. जिन से उन के कई पुत्र पैदा हुए. सज्जाकंवर सोलंकिनी से शक्ति सिंह व वीरमदेव, जयवंत कंवर मादड़ेची से जैत सिंह, करमचंद परमार की पुत्री लालकंवर से कान्हा, वीरकंवर झाली से रायसिंह, लखकंवर झाली से शार्दूल व रुद्र, सब से आखिर में उन का विवाह जैसलमेर की रूपवती राजकुमारी धीरकंवर भाटियाणी से हुआ जिन से जगमाल, सिंह, अगर, साह और पच्याण नामक राजकुमार पैदा हुए.

उन्हें अब इतने बड़े परिवार को याद करना भी कठिन होता जा रहा था. उन की याद्दाश्त काफी कमजोर हो गई थी. इतना याद था कि इन के अलावा अन्य रानियों से 13 राजकुमार और हैं.

इतने वर्षों में वह 18 रानियों और 24 राजकुमारों व 29 राजकुमारियों सहित 63 हो गए थे. कठिनाइयों से उठ कर वह सुख के झूले में बैठे थे. उसी दौरान एक दिन पूरब से 25 फरवरी, 1568 में इसलाम की काली आंधी अकबर के रूप में उन्हीं की जाति के सहयोग से आई. उन्होंने उस के साथ खून की होली खेली, लेकिन चित्तौड़ उन के हाथ से निकल गया.

उन्होंने नवीन स्वप्न के रूप में उदयपुर बसाया पर अभी वह पूरा विकसित भी नहीं हुआ कि वृद्धावस्था ने उन्हें आ घेरा. हाथ से चित्तौड़ जाने की पीड़ा वह किसी तरह भूले ही थे कि इस नई आफत ने उन के पूरे वजूद को हिला कर रख दिया. वह एक गहरे धर्मसंकट में फंस गए थे.

पटरानी जयवंत कंवर से बेटा प्रताप पैदा होने के बाद वह उन का सम्मान करते थे. धीरेधीरे जब उन के अन्य विवाह होने से उन का प्यार बंटने लगा. अंत में धीर कंवर ने अपनी सुंदरता, नफासत, समर्पण और सेवा के बल पर उन के हृदय पर एकाधिकार कर लिया. जैसेजैसे समय गुजरा. धीरकंवर ने उन का दिल जीत लिया.

सुहागरात के समय उन्होंने धीरकंवर को जो वचन दिया था, वही वचन उन्हें धर्मसंकट में डाल देगा ऐसा उन्होंने सोचा भी नहीं था. यह वचन आज उन के सब से प्रिय और तेजस्वी पुत्र प्रताप को उस के नैसर्गिक अधिकार से वंचित करने के लिए विवश कर रहा था.

वे जानते थे कि आने वाले समय में केवल प्रताप ही मेवाड़ के गौरव व मर्यादा को पुनर्स्थापित कर सकता है, अगर जगमाल महाराणा बना तो मेवाड़ विखंडित हो जाएगा और इतिहास उन्हें ही इस का दोषी ठहराएगा.

अगर वे अपने वचन को रद्द करते हैं तो एक समर्पिता नारी के सामने उन के पौरुष और आत्मसम्मान की पराजय होती. यही बात उन के स्वाभिमानी हृदय को अस्वीकार थी. अंत में उन्होंने अपना वचन पूरा करने का निश्चय कर लिया.

इस मानसिक संघर्ष ने उन को अचानक अशक्त बना दिया. धीरेधीरे बिंब छंटने लगे और निंद्रा ने उन की चेतना पर अपना डेरा डाल दिया. महाराणा उदय सिंह ने धीरकंवर को दिया वचन पूरा कर के रानी का मान रखा.

राजा की मोहब्बत का साइड इफेक्ट – भाग 4

महाराजा तुकोजीराव होल्कर के खिलाफ इस तरह का सीधा कोई सबूत नहीं था कि इस घटना में वह किसी भी तरह शामिल हैं क्योंकि गिरफ्तार अभियुक्तों में से किसी ने भी उन का नाम नहीं लिया था. लेकिन आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता रहा क्योंकि इस घटना के सारे आरोपी उन से संबंध रखते थे.

इस के बाद तो लोग तरह तरह की बातें करने लगे थे. यह भी कहा जाता है कि महाराजा होल्कर पर नजर रखने के लिए अंगरेजों ने एक जासूस भेजा था, जो बिजासन माता के मंदिर में साधु बन कर रह रहा था.

इस तरह की बातें फैलीं तो जांच में यह भी सामने आया था कि बावला की हत्या करने वाले लोग जिस कार से आए थे, उस का ड्राइवर ड्राइविंग का खिलाड़ी था. कुछ ही घंटों में उस ने कार इंदौर से मुंबई पहुंचा दी थी.

महाराजा होल्कर के खिलाफ नहीं मिले सबूत

महाराजा होल्कर भी कार ड्राइविंग के बहुत शौकीन थे. कहा जाता है कि होल्कर राजघराने की महारानी चंद्रावती होल्कर देश में कार चलाने वाली पहली महिला थीं. चंद्रावती होल्कर महाराजा तुकोजीराव होल्कर की तीसरी पत्नी थीं. महाराजा से जिद कर के उन्होंने कार चलानी सीखी थी.

इंदौर राजघराने के पास 60 महंगी कारों का काफिला था. महाराजा होल्कर खुद तेज कार ड्राइविंग के शौकीन थे. रतलाम से इंदौर तक की 160 किलोमीटर की दूरी उन्होंने एक घंटे में पूरी की थी.

हाईप्रोफाइल बन चुके बावला हत्याकांड मामले में जिन वकीलों को रुचि थी, उन में एक थे मोहम्मद अली जिन्ना. जिन्ना उस समय एक उत्साही वकील थे. 9 आरोपियों में से एक आरोपी आनंदराव फड़से ने जिन्ना को पत्र लिखा था. फड़से तुकोजीराव का संबंधी था और इंदौर की सेना में उच्च पद पर था. बावला हत्याकांड में आनंदराव सहित 9 लोगों को गिरफ्तार किया गया था. इन आरोपियों की ओर से जिन्ना ने मुकदमा लड़ा था.

अदालती काररवाई में 4 सैन्य अधिकारियों की गवाही बहुत अहम रही. बौंबे हाईकोर्ट ने 24 दिनों में अपना फैसला सुनाते हुए 9 आरोपियों में से 3 को फांसी की सजा सुनाई थी, जिस में शफी अहमद शोबाद, इंदौर एयरफोर्स के कैप्टन शामराव दिधे और दरबारी पुष्पशील फोंडे शामिल थे.

पुष्पशील का मानसिक संतुलन बिगड़ गया था, इसलिए अदालत ने उसे कालापानी की सजा दी थी. इस के अलावा आनंदराव फड़से सहित 4 लोगों को कालापानी की सजा सुनाई गई थी. 2 लोगों को बरी कर दिया गया था. उस समय इस केस के बारे में रोजाना अखबारों में समाचार छप रहा था. यही वजह थी कि जब 3 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई तो उमरखाली जेल के बाहर लोगों की भीड़ जमा हो गई थी. इसलिए जिन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी, उन्हें चुपचाप फांसी दे गई थी.

दोषियों ने प्रिवी काउंसिल (ब्रिटिश ताज के सलाहकारों की सर्वोच्च संस्था) के सामने अरजी करने के साथ जौन साइमन के समक्ष भी अपील की थी. जौन साइमन उन दिनों एक प्रख्यात वकील थे. बाद में 1929 में जिस का प्रचंड विरोध हुआ था, उस साइमन कमीशन के वह चैयरमैन बने थे.

देश छोड़ कर पेरिस क्यों गए महाराजा होल्कर

अखबारों में लगातार छप रहा था कि बावला हत्याकांड का मुख्य सूत्रधार अभी कानून की पकड़ से बाहर है. अखबारों का इशारा इंदौर के महाराजा तुकोजीराव होल्कर की ओर था. 2 समाज सुधारक महर्षि विट्ठल रामजी शिंदे और प्रचारक सीताराम ठाकरे तुकोजीराव के साथ खड़े थे.

केशव सीताराम ठाकरे, जिन्हें प्रबोधंकर ठाकरे के रूप में भी जाना जाता है, वह मराठी पत्रकार, तेजस्वी वक्ता और इतिहासकार शिवसेना प्रमुख स्व. बाल ठाकरे के पिता थे.

इतना ही नहीं, इस हत्याकांड का असर मुंबई (महाराष्ट्र) के सामाजिक जीवन पर भी पड़ा था. केशव सीताराम ठाकरे उन दिनों पुणे में रहते थे और ‘प्रबोधन’ नाम से पाक्षिक पत्रिका निकालते थे. केशव ठाकरे ने भी बावला हत्याकांड को ले कर अपनी पत्रिका में खूब लेख लिखे थे. पुस्तिकाएं भी निकाली थीं, जो इंगलैंड में बिकी थीं और संसद के हर सदस्य तक पहुंचाई गई थीं.

महाराजा तुकोजीराव होल्कर को भले ही इस मामले में नहीं शामिल किया गया था, पर अंगरेजों ने उन से स्पष्ट कह दिया था कि वह किसी भी तरह खुद को निर्दोष साबित करें या फिर सत्ता छोड़ दें. अंतत: तुकोजीराव ने सत्ता छोड़ दी थी. इस के बाद उन के बेटे यशवंतराव होल्कर ने सत्ता संभाली थी.

सत्ता छोडऩे के बाद खुद को अपमानित महसूस करते हुए तुकोजीराव देश छोड़ कर पेरिस चले गए थे, जहां उन्हें खुद से 17 साल छोटी नैंसी से प्यार हो गया था. नैंसी अमेरिका की रहने वाली एक क्रिश्चियन थी, इसलिए तुकोजीराव के इस प्रेम संबंध का धननगर समाज ने विरोध किया था. तब बाबासाहेब अंबेडकर और विनायक दामोदर सावरकर ने उन का साथ दिया था.

तुकोजीराव होल्कर ने साफ शब्दों में धमकी दी थी कि अगर उन के इस प्रेम विवाह का विरोध किया गया या किसी तरह की अड़चन डाली गई तो वह इसलाम धर्म स्वीकार कर लेंगे. इस के बाद हिंदू महासभा ने आगे आ कर नैंसी का धर्म परिवर्तन करा कर उस का नाम शर्मिष्ठा रखा और तुकोजीराव से उस का विवाह करा दिया था.

नैंसी से उन्हें 4 बेटियां थीं. उन की एक बेटी का विवाह कोल्हापुर के कागल वंश के राजकुमार से हुआ था, जिन का एक बेटा विजयेंद्र घाटगे फिल्म अभिनेता बन गया था. इन की बेटी सागरिका ने फिल्म ‘चक दे इंडिया’ में एक हाकी प्लेयर की भूमिका निभाई थी और अब क्रिकेटर जहीर खान की पत्नी है.

इस घटना के बाद मुमताज कुछ दिनों तक मुंबई में रही, उस के बाद वह कराची चली गई. कराची में उस ने एक गायिका के रूप में काम किया. फिर उस ने हौलीवुड की ओर रुख किया. इस के बाद मुमताज का कुछ पता नहीं चला और इतिहास के पन्नों से हमेशा के लिए उस का नाम गायब हो गया.

राजा की मोहब्बत का साइड इफेक्ट – भाग 3

कार मुंबई के मालाबार हिल के हैंगिंग गार्डन के पास पहुंची थी कि अचानक पीछे से हार्न बजाती एक कार तेजी से आई और बावला की कार में टक्कर मार कर उसे रोक लिया.

रेड कलर की उस मैक्सवेल कार से 4 लोग हाथों में चाकू और पिस्तौल जैसे घातक हथियार ले कर फुरती से उतरे. उन्होंने बावला को धमकाते हुए कहा, ”हम लोग इंदौर से आए हैं. मुमताज को नीचे उतार कर हमें सौंप दो और तुम जाओ. अगर तुम ने मुमताज को हमें नहीं सौंपा तो हम इसे जबरदस्ती अपने साथ इंदौर ले जाएंगे. यही नहीं, तुम ने विरोध किया तो तुम अपनी जान से भी हाथ धो बैठोगे.’’

लेकिन बावला अपनी प्रेमिका को भला ऐसे कैसे किसी को सौंप सकता था. एक आदमी मुमताज को पकड़ कर खींचने लगा तो बावला ने विरोध किया. उस के अन्य साथियों में से एक ने बावला पर गोली चला दी. गोली की आवाज से घोंसले में लौट रहे पक्षी चीखने लगे तो दूसरी ओर मुमताज की चीखें भी वातावरण की शांति को भंग कर रही थीं.

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कभीकभी संयोग भी अजीब स्थिति खड़ी कर देता है. उस समय भी एक ऐसा संयोग बना कि इंदौर का इतिहास ही बदल गया. जिस समय यह घटना घट रही थी, उसी समय ब्रिटिश सेना के 4 सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट जौन मेकलिन, कर्नल सीई विकरी, लेफ्टिनेंट फ्रांसिस बैटली और मैक्सवेल स्टीफन महालक्ष्मी रेसकोर्स के पास के विलिंग्डन स्पोट्र्स क्लब में गोल्फ खेल कर ताजमहल होटल की ओर जा रहे थे.

मेकलिन कार चला रहे थे. उन के बगल वाली सीट पर कर्नल विकरी बैठे थे तो कार की पीछे वाली सीट पर बैटली और स्टीफन बैठे थे. मैकलिन इस रास्ते से थोड़ा अपरिचित थे, इसलिए रास्ता भूल कर कहीं से कहीं चले आए थे.

यह रास्ता मालबार हिल की ओर जाता था. जब ये चारों सैन्य अधिकारी मालाबार हिल के पास पहुंचे तो इन्होंने जो दृश्य देखा, चौंक उठे. उन्होंने देखा कि कुछ गुंडे जैसे लोग हाथ में पिस्तौल और चाकू लिए एक महिला को डराते हुए कार से उतार रहे थे.

सैन्य अधिकारियों ने किया मुकाबला

वह महिला कोई और नहीं, मुमताज थी. चारों सैन्य अधिकारी कार से उतर कर हमलावरों की ओर बढ़े. इन अधिकारियों को अपनी ओर आते देख हमलावरों ने इन्हें डराने की लिए फायर कर दिया. पर ये अधिकारी घबराए नहीं और गोल्फ स्टिक ले कर उन गुंडों पर हमला बोल दिया.

जवाब में हमलावरों ने चाकू से वार किए. लंबी हाथापाई के बाद आखिर हमलावरों को भागना पड़ा. पर इन अधिकारियों को एक पिस्तौलधारी हमलावर को पकडऩे में सफलता मिल गई.

अब्दुल कादिर बावला के सीने में गोली लगी थी, जहां से तेजी से खून बह रहा था. लगातार खून बहने की वजह से उन के कपड़े खून से भीग गए थे. खून से लथपथ बावला को मुंबई के जेजे अस्पताल में भरती कराया गया. डाक्टरों ने तुरंत सर्जरी की.

हमलावरों द्वारा चलाई गई गोली बावला के बाएं फेफड़े से लीवर के पास से गुजर कर कमर के दाहिनी ओर से निकल गई थी. औपरेशन के बावजूद रात सवा बजे बावला की मौत हो गई थी. इस के बाद मुमताज के संघर्ष की एक नई कहानी शुरू हुई. मरने से पहले बावला गर्भवती मुमताज के लिए 40 लाख की संपत्ति छोड़ गया था.

अगले दिन अखबारों की हेडलाइन थी— ‘मुंबई के एक बड़े व्यापारी की हत्या, उस की प्रेमिका के अपहरण का प्रयास और ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा बचाव…’ यह घटना पूरे देश में चर्चा का मुद्दा बन गई थी. इस घटना की रिपोर्ट दर्ज हुई थी.

मामला जब पुलिस के पास पहुंचा तो मुंबई के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर पेट्रिक कैली ने हिंदुस्तान के गृहसचिव को पत्र लिख कर जानकारी दी कि युवती मुमताज काफी समय तक महाराजा इंदौर के साथ रही थी. अप्रैल, 1924 में मुमताज ने शाही परिवार छोड़ दिया था और इधर एकाध साल से अब्दुल कादिर बावला के साथ रह रही थी.

इस के बाद तेजी से पुलिस जांच शुरू हुई. सैन्य अधिकारियों ने जिस आदमी को पकड़ा था, उस का नाम शफी अहमद शोबाद था. वह इंदौर स्टेट पुलिस में रिसालदार (घुड़सवार सेना इकाई का कमांडर) था. पहले तो वह इस अपराध में शामिल होने से इनकार करता रहा, पर बाद में उस ने स्वीकार कर लिया था कि बावला हत्याकांड में वह शामिल था.

उस समय यह मामला काफी चर्चा में रहा. अखबारों के पन्ने इस मामले से भरे रहते थे. उस समय अंगरेजी के ही नहीं, मराठी अखबारों ने भी इस घटना को खूब छापा था. पुलिस पर इस मामले को ले कर काफी दबाव था. मुंबई के पुलिस कमिश्नर पेट्रिक कैली खुद इस मामले को देख रहे थे. वह ठंडे दिमाग से काम लेने वाले अधिकारी थे.

चूंकि यह मामला एक राजघराने से जुड़ा था, इसलिए उन पर काफी दबाव डाला जा रहा था. जिस का असर उन की जांच पर पड़ रहा था. अंत में उन्होंने यहां तक कह दिया था कि अगर उन पर अधिक दबाव डाला गया तो वह अपनी नौकरी से ही इस्तीफा दे देंगे, लेकिन पुलिस ने किसी तरह के दबाव को न मानते हुए अपनी जांच चालू रखी.

जब यह पता चला कि शफी अहमद ही नहीं, इस घटना में शामिल ज्यादातर आरोपी इंदौर राजघराने से जुड़े हैं तो मुमताज का संबंध महाराजा इंदौर के साथ होने से शक की सूई महाराजा तुकोजीराव होल्कर की ओर घूमने लगी. इस मामले में 9 लोगों को आरोपी बनाया गया था. सभी के खिलाफ बौंबे हाईकोर्ट में मुकदमा चला. उस समय हाईकोर्ट के जस्टिस क्रंप थे.

अदालत में सुनवाई के दौरान मुमताज ने अपने बयान में दावा किया था कि इंदौर में महाराजा से संबंध के दौरान उन की एक बेटी पैदा हुई थी, जिसे मार दिया गया था. इस के बाद उस ने इंदौर छोडऩे का मन बना लिया था. फिर उस ने इंदौर छोड़ दिया. यह घटना उसी का प्रतिफल है.

राजा की मोहब्बत का साइड इफेक्ट – भाग 2

महल छोड़ कर चाल में क्यों रहने लगी मुमताज

मुमताज (कमला) अपनी जिद पर अड़ी थी तो सुलेमान अपनी जिद पर. शोर सुन कर रेलवे पुलिस आ गई. आखिर पुलिस ने दोनों को समझाबुझा कर शांत किया. लेकिन मुमताज मंसूरी नहीं गई तो नहीं गई. मंसूरी जाने के बजाय वह अमृतसर चली गई. महारानी की जिद के आगे आखिर सुलेमान को झुकना पड़ा. आखिर था तो वह नौकर ही, भले ही राजा का कितना भी खास रहा हो.

मुमताज (कमला) अमृतसर गई तो इंदौर लौटने का नाम ही नहीं ले रही थी. जबकि महाराजा तुकोजीराव होल्कर का कमला के बिना मन नहीं लग रहा था. उन्होंने कमला को आने के लिए कई संदेश भेजे, पर कमला नहीं आई. कमला के इस व्यवहार से इंदौर के महाराजा को गुस्सा आ गया.

इंदौर राजघराने के बड़ेबुजुर्ग कमला को मनाने अमृतसर गए. उन में एक जिकाउल्लाह भी थे. कमला ने जब इंदौर आने से साफ मना कर दिया तो उन्होंने उसे धमकाते हुए कहा, ”देखो कमला, महाराज का आदेश है, इसलिए तुम्हें हमारे साथ इंदौर चलना ही होगा. अगर तुम सीधी तरह इंदौर नहीं चलती हो तो हमारे पास दूसरे भी अनेक रास्ते हैं.’’

लेकिन कमला टस से मस नहीं हुई. उस ने किसी की कोई बात नहीं मानी. तब जो लोग कमला को मनाने अमृतसर गए थे, सभी खाली हाथ लौट आए.

दूसरी ओर कमला जानती थी कि अब वह अमृतसर में शांति से नहीं रह पाएगी, इसलिए वह अमृतसर से अपने एक रिश्तेदार के यहां नागपुर चली गई. जब महाराजा तुकोजीराव को पता चला कि कमला नागपुर पहुंच गई है तो उन्होंने कमला को लाने के लिए नागपुर भी अपने आदमी भेजे पर कमला नहीं आई.

लेकिन महाराजा से बचना भी आसान नहीं था. अब उसे केवल अंगरेजी शासन का कोई बड़ा अधिकारी ही बचा सकता था. इस के लिए वह मुंबई चली गई, जहां पुलिस कमिश्नर भी बैठता था.

पुलिस कमिश्नर से सुरक्षा पाने के लिए कमला मुंबई पहुंच गई थी. क्योंकि कमला को पता था कि उसे पाने के लिए महाराजा कुछ भी कर सकते हैं, कोई भी रास्ता अपना सकते हैं.

कमला मुंबई अकेली नहीं आई थी. उस के साथ उस की मां और दादी भी थीं. कमला यानी मुमताज के मामा अल्लाबख्श भी मुंबई में रहते थे. पहले कमला ने अंधेरी में अपना ठिकाना बनाया. पर उन लोगों को यहां कुछ खतरा महसूस हुआ तो कमला अपनी मां और दादी के साथ मदनपुरा रहने आ गई. मदनपुरा की रंगारी चाल में एक मकान किराए पर ले कर कमला अपने परिवार वालों के साथ मामा अल्लाबख्श की देखरेख में रहने लगी.

लेकिन महाराजा तुकोजीराव होल्कर ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था. उन्होंने उस के पीछे अपने आदमी लगा रखे थे, जो लगातार उस की तलाश में लगे थे.

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यहीं कमला की मुलाकात उस के मामा अल्लाबख्श ने मुंबई के एक बहुत बड़े बिजनैसमैन अब्दुल कादिर बावला से कराई. अब्दुल कादिर बावला की गिनती मुंबई के बड़े व्यापारियों में होती थी. बावला मुंबई का अतिधनाढ्य व्यापारी होने के साथसाथ नगरसेवक भी था. बावला की संपन्नता का इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज से सौ साल पहले उस के पास 40 लाख की संपत्ति थी.

मुंबई की स्थानीय राजनीति में भी उस का अच्छा खासा दखल था. मालाबार हिल इलाके के वह कारपोरेटर भी था. उस ने ही मुंबई के उपनगर परेल में साबू सिद्दीकी मसजिद का निर्माण कराया था, जिसे आज भी बावला मसजिद के नाम से जाना जाता है.  आज भी वह मुंबई की सब से बड़ी मसजिद है.

कमला यानी मुमताज की सुंदरता देख कर अब्दुल कादिर होश खो बैठा था. मुमताज को भी एक ऐसे मजबूत सहारे की जरूरत थी, जो उसे महाराजा से बचा सके. देखने में हैंडसम अब्दुल कादिर बावला भी पहली नजर में मुमताज को भा गया था. इसलिए मुमताज ने अब्दुल कादिर के घर शरण ली.

जान से ज्यादा चाहने लगा कादिर बावला

मुमताज पूरी तरह बावला के प्रति समर्पित हो गई थी. अमृतसर, अजमेर, दिल्ली और शिमला की पहाडिय़ों में दोनों का प्यार खिलने लगा था. बावला का साथ पा कर मुमताज परछाईं की तरह पीछा कर रहे अपने अतीत को भूलने का प्रयास करने लगी थी. पर एक अपराधबोध उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था, क्योंकि वह महाराजा तुकोजीराव होल्कर की पत्नी रह चुकी थी.

यात्रा से लौट कर मुमताज चौपाटी स्थित अब्दुल कादिर बावला के साथ उस के बंगले में रहने लगी थी. बावला अच्छी तरह जानता था कि इंदौर राजघराने की नजर मुमताज पर है. इसलिए उस ने मुमताज से साफ कह दिया था कि उस की गैरमौजूदगी में वह घर के बाहर हरगिज न जाए.

लेकिन वही हुआ, जिस की आशंका मुमताज को दिनरात खाए जा रही थी. अकसर बावला मुमताज को ले कर लांग ड्राइव पर निकल जाता था. उसे साथ ले कर देर रात तक मुंबई की सड़कों पर घूमता. 12 जनवरी, 1925 की शाम को मुमताज और अब्दुल कादिर बावला अपने ड्राइवर के साथ घूमने निकले थे. उन के साथ उन का मैनेजर मैथ्यू भी था. मुंबई शहर को सलाम करता समुद्र की क्षितिज में सूरज अलविदा कह रहा था.

समुद्री खारी हवा से भीगी डूबती सांझ का सौंदर्य मुंबई वालों को आनंद की अनुभूति का अहसास करा रही थी. किसी नववधू जैसी सुंदर शाम का नजारा देखने के लिए बावला अपनी प्रेमिका मुमताज के साथ चौपाटी की ओर जा रहे थे.

समुद्र के किनारे एक ओर कार रोकवा कर दोनों डूबते सूरज की लालिमा को निहार रहे थे. सांझ की खूबसूरती को दोनों आंखों से पी रहे थे. उसी समय अचानक माहौल में भंग पड़ गया.

एक आदमी मुमताज के पास आ कर दबी आवाज में बोला, ”आप के प्रेमी बावला की हत्या करने के लिए कुछ लोग इंदौर से आए हैं.’’

यह सुन कर मुमताज घबरा गई. उस के गोरे सुंदर चेहरे पर खारे पसीने की बूंदें झिलमिलाने लगीं.

उस ने लपक कर बावला का हाथ पकड़ा और कार में बैठाते हुए ड्राइवर से कहा, ”जितनी जल्दी हो सके, तुम हमें घर पहुंचाओ.’’

हक्काबक्का अब्दुल कादिर बावला ने मुमताज से पूछा, ”क्या बात है, तुम इतना परेशान क्यों हो?’’

मुमताज ने पूरी बात बावला को बताई तो वह भी घबरा गया. उस ने भी ड्राइवर से गाड़ी तेज चलाने को कहा. ड्राइवर ने कार की गति और बढ़ा दी. कार तेजी से मुंबई की सड़क पर भाग रही थी.

राजा की मोहब्बत का साइड इफेक्ट – भाग 1

बात तब की है, जब देश में हुकूमत तो अंगरेजों की थी, लेकिन राज राजा करते थे. इंदौर में उन दिनों राजा तुकोजीराव होल्कर (तृतीय) राज कर रहे थे. अन्य राजाओं की तरह तुकोजीराव भी अय्याशी में डूबे रहते थे. इस की वजह यह थी कि इन राजाओं के पास कोई कामधाम तो होता नहीं था. जनता से लगान की जो रकम आती थी, उस में से अंगरेजों का हिस्सा निकाल कर बाकी रकम वे अपने मौजशौक और अय्याशी पर खर्च करते थे. इसी दौरान उन के संपर्क में एक लड़की आई.

उस लड़की की उम्र उस समय मात्र 10 साल थी. नाम था उस का मुमताज. वह अपनी मां, दादी और साजिंदों के साथ पंजाब के अमृतसर से इंदौर के महाराजा तुकोजीराव के यहां आई थी. खास बात यह थी कि मुमताज बहुत अच्छी नृत्यांगना थी. महाराजा ने उस के रहने की व्यवस्था लालबाग स्थित महल में करा दी थी. वह 2 महीने तक इंदौर में रही. इन 2 महीनों तक रोजाना महाराजा की महफिल लालबाग में जमती रही.

लालबाग के महल में जमने वाली महफिलों में मुमताज ने महाराजा को अपनी सुमधुर आवाज और नृत्य का कायल कर दिया था. मुमताज के सुर और सौंदर्य का महाराज पर ऐसा जादू चला था कि वह उस के दीवाने हो गए थे.

2 महीने तक अपने सुर और सौंदर्य का जादू बिखेर कर मुमताज हैदराबाद के नवाब के यहां चली गई. पर वह वहां ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई, क्योंकि हैदराबाद के नवाब तो वैसे भी कंजूस थे. जब वह खुद पर ही अपने पैसे नहीं खर्च करते थे तो भला नाचने गाने वाली पर कहां से खर्च करते. मुमताज जल्दी ही हैदराबाद से फिर इंदौर आ गई. इंदौर के लालबाग स्थित महल में फिर से मुमताज की महफिलें जमने लगीं.

इंदौर में एक साल तक मुमताज के संगीत और गायन की महफिल जमती रही. महाराजा तुकोजीराव मुमताज के सम्मोहन में बंधते गए. वह उस पर दिल खोल कर रुपए लुटा रहे थे. हीरेजवाहरात और गहनों से उन्होंने उसे लाद दिया था.

एक साल इंदौर में रह कर मुमताज अमृतसर चली गई. पर वह वहां भी ज्यादा दिनों तक ठहर नहीं सकी. जो सम्मान और प्यार उसे इंदौर में मिल रहा था, वह अमृतसर में नहीं मिला तो मुमताज जल्दी ही एक बार फिर इंदौर आ गई.

इस बार मुमताज इंदौर आई तो महाराजा ने उस के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया. एक नाचनेगाने वाली को इतना बड़ा सम्मान मिल रहा था, वह भला कैसे मना करती. तुकोजीराव से विवाह कर के वह महारानी बनने जा रही थी. मुमताज ने महाराजा का प्रस्ताव खुशी खुशी स्वीकार कर लिया. मुमताज का नाम कमलाबाई रख कर महाराजा तुकोजीराव होल्कर (तृतीय) ने उस के साथ बाकायदा रीतिरिवाज के साथ विवाह कर लिया. महाराजा से विवाह कर के मुमताज महारानी कमलाबाई बन गई.

विवाह के बाद महाराजा तुकोजीराव इंगलैंड घूमने गए तो महारानी कमलाबाई को भी साथ ले गए. इस यात्रा से लौट कर कमलाबाई ने एक बेटी को जन्म दिया. कमला का कहना था कि उस लड़की की हत्या कर दी गई थी. महाराजा जहां भी जाते थे, कमलाबाई उर्फ मुमताज को साथ ले जाते थे. यहां तक कि वह शिकार पर भी जाते थे तो कमला को साथ ले जाते थे.

रानी बन कर मुमताज क्यों नहीं थी आजाद

एक बार वह भानपुर शिकार पर गए तो कमला तो साथ गई ही थी, उस की मां और दादी भी साथ गई थीं. इस की वजह यह थी कि महाराजा कमला से इतना प्यार करते थे कि उसे एक पल के लिए खुद से अलग नहीं करते थे. इसलिए कमला अपनी मां और दादी से भी नहीं मिल पाती थी.

मुमताज से मिलने के लिए ही उस की मां और दादी साथ गई थीं कि शायद वहां जब महाराजा शिकार करने चले जाएंगे तो वे मुमताज से मिल लेंगी.

महाराजा कमला (मुमताज) को पल भर के लिए भी आजादी नहीं देते थे. इस तरह मुमताज खुद की तुलना सोने के पिंजरे में बंद पंछी से करने लगी थी. जबकि वह आजाद गगन में विचरण करना चाहती थी. उस पर तरह तरह की पाबंदियां लगी थीं. लगती भी क्यों न, अब वह महाराजा की सब से चहेती रानी जो थी.

लेकिन हर चीज की एक हद होती है. अति किसी भी चीज की हो, वह परेशान करने लगती है. भले ही वह प्यार ही क्यों हो. महाराजा का यह प्यार भी हद से अधिक था. इसलिए महाराजा का यह प्यार अब उस के लिए घुटन बन रहा था. इस के अलावा जब भी मुमताज गर्भवती होती, उस का गर्भपात करा दिया जाता. मुमताज इस से भी परेशान रहती थी.

मुमताज महाराजा के अति से अधिक प्यार और बारबार गर्भपात कराने से इस कदर ऊब गई थी कि अब वह किसी भी तरह महाराजा की कैद से मुक्त होना चाहती थी. इसलिए एक दिन उस ने महाराजा तुकोजीराव से कहा, ”महाराज, मैं राजमहल के इस तामझाम और अदाकारी से ऊब गई हूं. इसलिए कुछ दिन किसी एकांत जगह पर अकेली रहना चाहती हूं. इस के लिए आप मुझे कहीं एकांत और शांत जगह पर जाने की इजाजत दीजिए.’’

”आप कहां जाना चाहेंगी, आदेश कीजिए. मैं उस के लिए सारी व्यवस्था करवा देता हूं.’’ महाराजा तुकोजीराव ने कहा.

”एकांत और शांत जगह तो पहाड़ों पर ही हो सकती है. इसलिए मैं मंसूरी जाना चाहूंगी.’’ मुमताज उर्फ कमलाबाई ने कहा.

”ठीक है, तुम यात्रा की तैयारी करो. मैं तुम्हारे जाने की सारी व्यवस्था करवा देता हूं.’’

मुमताज तो किसी तरह इस सोने के पिंजरे से आजादी चाहती थी. महाराजा का आदेश मिलते ही मुमताज ने सारी तैयारी कर ली. उसे मंसूरी जाने वाली ट्रेन में बैठा दिया गया. वह अकेली ही मंसूरी जाना चाहती थी, पर उस की देखभाल और उसे रास्ते में किसी तरह की परेशानी न हो, इस के लिए महाराजा ने अपने एक विश्वासपात्र सुलेमान को मुमताज के साथ भेज दिया.

लेकिन जब मुमताज मंसूरी जाने के बजाय दिल्ली में ही उतर गई तो सुलेमान हैरान रह गया. उस ने मुमताज (कमला) से मंसूरी चलने का आग्रह किया तो उस ने कहा, ”मुझे मंसूरी नहीं जाना. मेरा जहां मन होगा, मैं वहां जाऊंगी.’’

”पर महाराजा ने तो मुझ से आप को मंसूरी ले जाने के लिए कहा है, इसलिए आप को मंसूरी ही चलना पड़ेगा.’’ सुलेमान ने कहा, ”आप को महाराज के आदेश का पालन करना होगा.’’

”महाराज होंगे तुम्हारे, इसलिए तुम उन के आदेश का पालन करो. मैं यहां से कहीं नहीं जाने वाली.’’ मुमताज ने मंसूरी जाने से साफ मना कर दिया.

पर सुलेमान इतनी जल्दी हार नहीं मानने वाला था. वह महाराजा तुकोजीराव का खास आदमी था. इसलिए उस ने कहा, ”मैं तो महाराज के आदेश का ही पालन कर रहा हूं. महाराज ने आप को मंसूरी ले जाने का आदेश दिया है, इसलिए मैं आप को मंसूरी ले जाऊंगा.’’

ऐतिहासिक कहानी : मृगनयनी – भाग 3

पहले अटल विश्वास न कर सका, किंतु जब स्वयं मानसिंह ने उस से विवाह की बात कही, तब तो अटल की खुशी का ठिकाना न रहा. दूसरे ही दिन विवाह होना था. अटल इंतजाम में लग गया. लोग उस से पूछते कि वह पैसा कहां से लाएगा और इतना बड़ा ब्याह कैसे करेगा?

अटल गर्व से जवाब देता, ‘‘मैं कन्या दूंगा और एक गाय दूंगा. सूखी हल्दी और चावल का टीका लगाऊंगा. घर में बहुत से जानवरों के चमड़े रखे हैं, उन्हें बेच कर बहन के गले के लिए चांदी की एक हंसली दूंगा और क्या चाहिए?’’

मानसिंह ने अटल की कठिनाइयां सुनीं तो उसे संदेश भेजा कि वे ग्वालियर से शादी करने को तैयार हैं और दोनों तरफ का खर्चा भी वे पूरा करेंगे. इस से अटल के स्वाभिमान को बड़ा धक्का पहुंचा. उस ने तुरंत संदेशा भेजा कि उसे यह बात मंजूर नहीं. आज तक कहीं ऐसा नहीं हुआ कि लडक़ी को लडक़े के घर ले जा कर विवाह किया गया हो, गरीब से गरीब लडक़ी वाले भी अपने घर में ही लडक़ी का कन्यादान देते हैं.

इस पर मानसिंह चुप हो गए. अटल ने रात भर जाग कर सब तैयारियां की. उस ने जंगल से लकड़ी और आम के पत्ते ला कर मंडप बनाया. अनाज बेच कर कपड़े का एक जोड़ा निन्नी के लिए तैयार किया तथा गांव वालों को बांटने के लिए गुड़ लिया.

इस तरह दूसरे दिन वैदिक रीति से राजा मान सिंह और निन्नी का ब्याह पूरा हुआ. गांव के लोगों से जो कुछ बन पड़ा, उन्होंने निन्नी को दिया. विदाई के समय निन्नी अटल से लिपट कर खूब रोई. उस ने रोते हुए कहा, ‘‘भैया, अब लाखी को भाभी बना कर जल्दी घर ले आओ. तुम्हें बहुत तकलीफ होगी.’’

भाई ने उसे आश्वासन दिया और इस प्रकार निन्नी भाई की झोपड़ी को छोड़ ग्वालियर के महल के लिए रवाना हो गई. विवाह के बाद महल की राजपूत रानियों ने गुर्जर जाति की रानी का विरोध किया.

इसी कारण राजा मान सिंह ने ‘गूजरी महल’ का निर्माण करवाया. वहीं, गुर्जर किसान की बेटी निन्नी, जिस का नाम असल में मृगनयनी था, ग्वालियर की गूजरी रानी के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुई. उस में जैसी सौंदर्य की कोमलता थी, वैसी ही शूरवीरता भी थी. राजा मानसिंह उसे बहुत ही चाहते थे और कुछ समय तक ऐसा लगा कि राजा उस के पीछे पागल है, किंतु निन्नी ने उन्हें हमेशा कर्तव्य की और प्रेरित किया.

वह संगीत और चित्रकला सीखने लगी, जिस से उस का समय व्यस्त रहता और मानसिंह भी उस समय अपने राज्य के कार्यों में लगे रहते. युद्ध के समय मृगनयनी हमेशा मानसिंह को उत्साहित कर प्रजा की रक्षा के लिए तत्पर रहती थी. इस प्रकार मृगनयनी सचमुच एक योग्य कुशल रानी सिद्ध हुई. उस ने राज्य में संगीत, चित्रकला, शिल्पकला को प्रोत्साहन दिया. ग्वालियर में बने हुए मान मंदिर और गूजरी महल आज भी उस समय की उन्नत शिल्पकला के नमूने हैं.

राई गांव से गूजरी महल तक बनी हुई नहर जिस में सांक नदी का जल ग्वालियर तक ले जाया गया था, आज भी दिखाई देता है. मानसिंह सांक नदी का जल नहर बना कर ग्वालियर ले आए और गूजरी महल तक पहुंचा कर अपना वादा निन्नी से पूरा किया. निन्नी की यह शर्त थी जो राजा ने पूरी की.

राजा मानसिंह को मृगनयनी से 2 बेटे हुए थे- एक का नाम राजे, दूसरे का बाले था. मान सिंह ने निन्नी सहित 9 रानियों से विवाह किए थे. निन्नी से पहले मानसिंह के 8 रानियां थीं. मानसिंह की बड़ी रानी से एक बेटा विक्रमादित्य था, जो मानसिंह के पीछे राजा हुआ.

मृगनयनी अपने दोनों बेटों राजे और बाले को गूजरी महल छोड़ टिगड़ा के जंगलों में चली गई. उन्होंने एक नया गोत्र अपनाया जो आज गुर्जर में आता है ‘तोंगर’, जिस का अर्थ यह है तोमर+गुर्जर = तोंगर. मृगनयनी के बेटों को क्षत्रिय राजपूतों में शामिल नहीं किया गया था. क्योंकि क्षत्रिय वो है, जो एक क्षत्राणी की कोख से जन्मा हो, मगर मृगनयनी तो गुर्जर जाति से थी. इस कारण उसे गूजरी महल से टिगड़ा के जंगलों में बेटों को ले कर जाना पड़ा. मृगनयनी के बेटों ने नया गोत्र तोंगर अपनाया.

मृगनयनी के बेटों को कुछ जागीर दे कर गुर्जरों में शामिल किया गया. ये राजपूत राजा मान सिंह तोमर के गूजरी पत्नी के वंशज आज तोंगर गुर्जर कहलाते हैं और तोमर राजपूतों का समर्थन करते हैं चुनाव वगैरह में. राजपूत राजा की गूजरी रानी निन्नी. मृगनयनी ने ग्वालियर के तोमर राज्य में चार चांद जोड़ दिए और उस काल को इतिहास में अमर कर दिया. राजा मान सिंह तोमर ने 1486 से 1516 तक शासन किया. अपने शासन काल में उन्होंने कई जंग जीतीं और वे संगीत प्रेमी भी थे.

निन्नी की आंखें बहुत सुंदर एवं हिरणी की तरह बड़ीबड़ी थीं, इसलिए मानसिंह ने उन का नाम मृगनयनी रख दिया और वे इसी नाम से प्रख्यात हो गईं.

मानसिंह जब भी किले से बाहर जाते या आते थे, वे मृगनयनी से जरूर गूजरी महल में जा कर मिलते थे. मृगनयनी रानी से मिलने में आसानी हो, इसलिए महल से एक सुरंग सीधे नीचे गूजरी महल तक बनाई गई थी. इसी सुरंग से होते हुए महाराजा मान सिंह रानी मृगनयनी से मिलने आया करते थे.

महाराजा मानसिंह अगर सब से ज्यादा किसी से प्रेम करते थे, तो वह थी मृगनयनी. महाराजा मान सिंह तोमर और रानी मृगनयनी के प्रेम की निशानी है ग्वालियर किले पर वर्ष 1506 में बना ‘गूजरी महल’.

वर्ष 1922 में पुरातत्त्व विभाग ने इस महल को संग्रहालय में बदल दिया. इस में 28 गैलरी हैं, जिन में लगभग 9 हजार कलाकृतियां हैं. यह गूजरी महल आज ग्वालियर किले का प्रमुख आकर्षण है और लाखों पर्यटक इसे देखने आते हैं.

राजा मान सिंह तोमर और मृगनयनी की प्रेम गाथा आज भी बड़े चाव से ग्वालियर में लोगों से सुनी जाती है. एक समय ऐसा भी आया, जब राजा मान सिंह और मृगनयनी का स्वर्गवास हो गया. तब मान सिंह तोमर की 8 रानियों सहित एक हजार महिलाओं ने जौहर करके अग्निस्नान किया था. उस काल में मुगलों ने जहांजहां हिंदू सम्राटों को शिकस्त दी. वहां के राजपूत राजाओं के कुल की नारियों ने जौहर कर के अपनी लाज बचाई थी, राजा मान सिंह और मृगनयनी की प्रेम कहानी कल की सी लगती है.