भारत की पहली फायर वूमन हर्षिनी कान्हेकर ने यह सिद्ध कर दिया है कि जैंडर के आधार पर कोई काम निर्धारित नहीं होता, क्योंकि आज महिलाएं हर क्षेत्र में ऊंचाइयां छू रही हैं. हां, 10-15 साल पहले बात अलग थी, जब महिलाओं को आगे बढ़ने से रोका जाता था.

हर्षिनी के इस सफल अभियान में उन के पिता ने बहुत सहयोग दिया. हर्षिनी के 69 वर्षीय पिता बापुराव गोपाल राव कान्हेकर महाराष्ट्र के सिंचाई विभाग के रिटायर्ड इंजीनियर हैं. उन्हें पढ़ाई के बारे में बहुत जानकारी थी.

उन्होंने अपनी पत्नी को भी शादी के बाद पढ़ने के लिए प्रेरित किया. वे हमेशा किसी न किसी कोर्स के बारे में हर्षिनी को बताते रहते थे, उस सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के लिए प्रोत्साहित करते थे ताकि हर्षिनी की स्पीड लिखने में बढ़े.

उन्होंने हमेशा बच्चों को ग्राउंडेड रखा. वे कहते हैं, ‘‘मुझे पता था कि हर्षिनी इस फील्ड में अच्छा करेगी. उस का पैशन मुझे दिख गया था. मैं सुबह उठ कर उसे प्रैक्टिस के लिए रोज तैयार करता था ताकि उसे मेरे पैशन का भी पता लगे.’’

अपने पिता के सपने को साकार करते हुए आज हर्षिनी ओएनजीसी की फायर सर्विसेज की डिप्टी मैनेजर हैं. आइए जानते हैं उन की सफलता का राज:

यहां तक आने की शुरुआत कैसे हुई?

मेरे पिता हमेशा शिक्षा को ले कर बहुत जागरूक थे. किसी नए कालेज में जाने से पहले वे वहां की सारी सिचुएशन से हमें अवगत कराते थे. फायर कालेज में एडमिशन के दौरान वे मुझे वहां ले गए, तो पता चला कि वहां आज तक किसी लड़की ने दाखिला नहीं लिया है.

सब चौंक गए कि लड़की यहां कैसे आई. उन्होंने यहां तक कहा कि मैडम आप आर्मी या नेवी में कोशिश करें, यह तो लड़कों का कालेज है. यहां आप टिक नहीं पाएंगी. ये बातें मुझे पिंच कर गईं. मगर मेरे पिता ने मेरा हौसला बढ़ाया और मैं ने तभी ठान लिया कि मैं यहीं पढ़ूंगी. मेरी फ्रैंड ने भी मेरे साथ फार्म भरा.

यूपीएससी की इस परीक्षा में केवल 30 सीटें पूरे भारत में थीं. मैं ने प्रवेश परीक्षा दी और पास हो गई. मेरे लिए यह बड़ी बात थी.

पुरुषों के क्षेत्र में पढ़ने और काम करने में कितनी चुनौती थी?

परीक्षा पास करने के बाद भी लोगों ने तरहतरह की राय दीं. यह कोर्स क्या है यह समझने में मेरे मातापिता ने भी समय लिया. फिर मैं ने इस क्षेत्र के एक व्यक्ति से परामर्श लिया, तो पता चला कि कोर्स बहुत अच्छा है. फिर मेरे पिता ने भी मेरा पूरा साथ दिया और मैं ने ऐडमिशन ले लिया. जब मैं ने खाकी वरदी पहनी, तो मेरी मनोकामना तो पूरी हुई, पर दायित्व भी आ गया.

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जो लोग पहले हंस रहे थे वे अब चुप थे. मुझे प्रूव करना था. मैं वे सभी काम किया करती थी, जो लड़के करते थे. मैं ने अपनेआप को पूरी तरह से अनुशासन में ढाल लिया था ताकि कोई मेरे ऊपर उंगली न उठाए. कमजोरी मैं ने कभी कोई नहीं दिखाई, क्योंकि इस का असर बाकी लड़कियों पर पड़ता, क्योंकि मैं उन का प्रतिनिधित्व कर रही थी.

पिता की कौन सी बात को अपने जीवन में उतारती हैं?

लोग मुझे कहते हैं कि मैं बहुत साहसी हूं पर मेरे मातापिता मुझ से भी अधिक साहसी हैं. तभी तो उन्होंने मुझे लड़कों के कालेज में भेजने की हिम्मत दिखाई. जब मैं कोलकाता में 3 महीने जैंट्स होस्टल में अकेली रही. पिता मुझे अलग भी रख सकते थे, पर उन्होंने वहीं रह कर मुझे पढ़ने का निर्देश दिया. मुझे लगता है मेरे पिता ने समाज की उस सोच को बदलने में बड़ा कदम उठाया, जो लड़कालड़की में भेद करती है.

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