एक समझदार ससुर की तरह बाबूलाल मऊ नीतू के मायके पहुंचा और दुनिया की ऊंच नीच और इज्जत दुहाई देते उसे मना कर वापस ले आया. यह पिछले साल नवरात्रि की बात है. नीतू दोबारा ससुराल आ गई. पत्नी क्यों मायके चली गई थी और फिर वापस क्यों आ गई और सेक्स से अंजान रामजी को इन बातों से कोई सरोकार नहीं था.
हालात देख बाबूलाल के मन में पाप पनपा और उस ने नीतू से नजदीकियां बढ़ानी शुरू कर दीं. किसी नएनवेले आशिक की तरह बाबूलाल नीतू की हर पसंदनापसंद का खयाल रखने लगा तो नीतू भी उस की तरफ झुकने लगी. आखिर उसे भी पुरुष सुख की जरूरत थी, जिसे वह कहीं बाहर से हासिल करती तो बदनामी भी होती और गलत भी वही ठहराई जाती.
देहसुख का अघोषित अनुबंध तो बाबूलाल और नीतू के बीच हो गया लेकिन पहल कौन और कैसे करे, यह दोनों को समझ नहीं आ रहा था. मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी वाली बात इन दोनों पर इसलिए लागू नहीं हो रही थी कि दोनों के बीच कोई काजी था ही नहीं. दोनों भीतर ही भीतर सुलगने लगे थे पर शायद लोकलाज का झीना सा परदा अभी बाकी था.
यह परदा भी एक दिन टूट गया जब आंगन में नहाती नीतू को बाबूलाल ने देखा. उस के दुधिया और भरे मांसल बदन को देखते ही बाबूलाल के जिस्म में चीटियां सी रेंगी तो सब्र ने जवाब दे दिया. एकाएक उस ने नीतू को जकड़ लिया.
नीतू ने कोई एतराज नहीं जताया. वह तो खुद पुरुष संसर्ग के लिए बेचैन थी. उस दिन जो हुआ नीतू के लिए किसी मनोकामना के पूरी होने से कम नहीं था. बाबूलाल को भी सालों बाद स्त्री सुख मिला था, सो वह भी निहाल हो गया.