Hindi Stories : आज की पीढ़ी के नौजवान सट्टे और सट्टा किंग रतन खत्री के बारे में भले ही न जानते हों, लेकिन यह सच है कि एक जमाने में सट्टा किंग रतन खत्री का सिक्का छोटेबड़े सब शहरों में चलता था. अब रतन खत्री नहीं रहा तो…
जब आमजन महामारी से जूझ रहा था तब कई हस्तियों की मौते हुईं. जिन हस्तियों की मौतें हुईं, उन में से एक का जिक्र न के बराबर हुआ. यह एक ऐसा शख्स था जो किसी भी नेता या अभिनेता से कहीं अधिक लोकप्रिय और आम लोगों के ज्यादा करीब था. इस का नाम था रतन खत्री और उपनाम सट्टा या मटका किंग. आंकड़ों के इस सौदागर ने 5 दशक तक ठसके से देश भर में सट्टे का अपना कारोबार चलाया लेकिन कभी कोई कानून उस का कुछ नहीं बिगाड़ सका. यह और बात है कि आम भारतीय की रोजमर्रा की जिंदगी का अहम हिस्सा रहे रतन खत्री की मौत बेहद खामोश और सादगी भरी रही, जबकि उस ने एक चमकदमक भरी जिंदगी को जिया और लाखोंकरोड़ों मेहनतकशों के अलावा मध्यमवर्गीय लोगों को भी सट्टे की ऐसी लत लगाई कि कई तो इस में बरबाद और कंगाल हो गए.
इस में कोई शक नहीं कि वह उन बिरले लोगों में से था, जिन के पास एक आला दिमाग और जोखिम उठाने की कूवत होती है. कोई भी रतन खत्री के अतीत के बारे में कुछ खास नहीं जानता सिवाय इस के कि भारतपाकिस्तान के बंटबारे के वक्त सिंधी समुदाय का यह किशोर मय परिवार के पाकिस्तान से भारत आया था. यह परिवार भी दूसरे शरणार्थियों की तरह खानेपीने को मोहताज था. पचास के दशक में मुंबई में देश भर के लोग आ कर बस रहे थे, इन में से अधिकांश मजदूर थे. इसी दौर में मुंबई में कपड़ा मिलों का बोलबाला शुरू हुआ, जिस के चलते मजदूरों की कई छोटीबड़ी यूनियनें वजूद में आईं, जिन के दम पर कम्युनिस्ट यहां खूब फलेफूले थे.
बेरोजगार और बेघर रतन के सामने कई दुश्वारियां मुंह बाए खड़ी रहती थीं लेकिन वह भीड़ का हिस्सा बनने नहीं बल्कि भीड़ का अगुवा बनने को पैदा हुआ था. मुंबई तब भी आज की तरह बेरहम थी, लेकिन यह भी सच है कि वह जिस पर मेहरबान हो जाती है उसे खाक से उठा कर फलक पर बैठा देती है. यही रतन के साथ हुआ और इतने इत्तफाकन और दिलचस्प तरीके से हुआ कि उस की कामयाबी एक किंवदंती बन कर रह गई. एक और नौजवान थे कल्याणजी भगत, जो गुजरात के कच्छ इलाके से रोजगार की तलाश में मुंबई आए थे. साधारण किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले कल्याणजी ने पेट पालने के लिए कई छोटेमोटे काम किए. उन्होंने किराने की दुकान में काम किया और मोहल्लेमोहल्ले जा कर घरेलू मसाले भी बेचे.
कल्याणजी वरली इलाके में रहते थे. उस दौर में मुंबई में कसीनो न के बराबर थे और रेसकोर्स भी गिनेचुने थे. लेकिन एक खास तरह के सट्टे का जोर यहां छूत की बीमारी की तरह फैल रहा था. यह था न्यूयार्क कौटन एक्सचेंज में सूत के दामों के खुलने और बंद होने का अंदाजा लगाना. जुआ सट्टा इन अंदाजों और यूं ही लगाई जाने वाली शर्तों का एक संगठित और बड़ा कारोबार क्यों नहीं हो सकता, यह बात जैसे ही कल्याणजी के खुराफाती दिमाग में कौंधी तो उन्होंने इसे एक ऐसा प्लेटफार्म देने में कामयाबी हासिल कर ली, जिस की तब कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था.
अपने कारोबार को चमकाने के लिए कल्याणजी को उन के ही जैसे तीक्ष्ण बुद्धि वाले साथी की तलाश थी जो रतन खत्री को देखते और उस से मिलते ही पूरी हो गई. इन दोनों ने मिल कर मुंबई में मटका जुआ या सट्टा कुछ भी कह लें, शुरू किया. जिस का शुरुआती क्षेत्र वरली था. जान कर हैरानी होती है कि मटके के नाम से चलने वाले इस कारोबार में मटके का इस्तेमाल नहीं होता था. मोटे तौर पर कहें तो मटका एक प्रतीक भर था, जिस में पर्चियां डाली जाती हैं और फिर बोली लगने के बाद निकाल ली जाती हैं. इन पर्चियों में दांव लगाने वालों के भाव मय नाम के दर्ज रहते थे. असल में इस खेल या सट्टे का फंडा यह था कि न्यूयार्क कौटन एक्सचेंज के सहीसही दाम बताने वालों को जीत की राशि दे दी जाती थी, बाकी बचा पैसा कल्याणजी भगत और रतन खत्री का हो जाता था.
इसे और आसानी से समझें तो होता यह था कि अगर सौ लोगों ने कौटन का दाम भारतीय मुद्रा में अपने अंदाजे से सही बताया है तो उन की पर्चियां इकट्ठी कर ली जाती थीं और दांव पर लगने वाली राशि एकत्रित कर ली जाती थी. मान लिया जाए कि दांव लगाने वाले सौ लोगों ने एक एक रुपया लगाया और अंदाजा 6 का सही निकला तो इन छह लोगों को 9-9 यानी 54 रुपए पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से दे दिए जाते थे. बाकी के 46 रुपए इन दोनों के हो जाते थे. चूंकि उस वक्त यह रकम लाखों में होती थी, इसलिए इन की कमाई भी हजारों में होती थी. ऐसा बहुत कम ही होता था कि बहुत से लोगों के बताए भाव न्यूयार्क कौटन एक्सचेंज के भावों से मेल खाएं, इसलिए इस जोड़ी को घाटा भी अपवाद स्वरूप ही हुआ, जो उन के मुनाफे या कमाई के आगे कुछ भी नहीं होता था.
कल तक जो कल्याणजी और रतन फाके करते थे, वे देखते ही देखते लखपति हो गए. आज से 60 साल पहले लखपति होने का मतलब था आज की तारीख में करोड़पति होना. देखते ही देखते यह कारोबार मुंबई से होते हुए आसपास के इलाकों और देश भर के बड़े शहरों में फैल गया. तब लोग इस में भारी दिलचस्पी लेते, लंबेलंबे दांव लगाते थे. इस में भी कोई शक नहीं कि जिस का भाव सटीक खुलता था, उस के भाग्य भी खुल जाते थे यानी जीतने वाला एक बार में खासा पैसा कमा लेता था, लेकिन हारने वालों का एकदम से कोई बड़ा नुकसान नहीं होता था. एक तरह से सूत के दाम के बहाने यह आजकल की महिलाओं की किटी पार्टी यानी बीसी जैसा था जिस में इन दोनों की भूमिका मैनेजर की होती थी. सट्टे के कारोबार के लिहाज से ये बुकी, पंटर या खाइबाज की श्रेणी में आते थे.
कुछ साल साथ रहते दोनों काफी मालामाल हो गए और इन का नाम भी चलने लगा. लेकिन रतन खत्री की हैसियत मैनेजर की ही थी, जिस ने बेहद कुशलतापूर्वक पैसों का हिसाबकिताब और लेनदेन संभाल रखा था. फिर एक दिन जैसा कि 2 नंबर के तेजी से बढ़ते धंधों का घोषित रिवाज है, के मुताबिक दोनों में फूट पड़ गई. उस वक्त तक इन के मटके के कारोबार में से पुलिस वालों को भी हिस्सा जाने लगा था और उन छोटेबड़े गुंडे, मवालियों को भी ये पालने लगे थे जिन का काम वैतनिक या ठेके पर उन लोगों को मैनेज करना होता था जो इन के धंधे में अड़ंगा या टांग अड़ाते थे. अब तक यह व्यवसाय उम्मीद से ज्यादा लोकप्रिय भी हो गया था और व्यवस्थित भी, ठीक वैसे ही जैसे किसी कंपनी का कारोबार होता है. रतन और कल्याण दोनों विकट के महत्त्वाकांक्षी थे, लेकिन बेवकूफ नहीं थे कि पैसों को ले कर लड़ेंझगड़ें.
इन्हें एहसास था कि अगर झगड़े तो दोनों कहीं के नहीं रह जाएंगे, लिहाजा दोनों ने खामोशी से अलगअलग रास्ते अख्तियार कर लिए. दोनों में कोई खास मनमुटाव था भी नहीं. दरअसल, 1962 में एकाएक ही न्यूयार्क कौटन एक्सचेंज ने सूत के भाव खोलने और बंद करने की प्रक्रिया बंद कर दी तो सट्टा लगाने वालों ने भी मुंह मोड़ना शुरू कर दिया. अब तक ये दोनों 7 नहीं तो 3 पुश्तों के गुजारे लायक पैसा इकट्ठा कर चुके थे और शानोशौकत की जिंदगी जीने लगे थे. राजनीति और फिल्म इंडस्ट्री में भी इन का नाम इज्जत से लिया जाने लगा था. कई नामचीन हस्तियों से इन के अंतरंग संबंध स्थापित हो गए थे, जिस की वजह सिर्फ इतनी थी कि इन्होंने कम वक्त में बेशुमार दौलत कमा ली थी. हां, आम लोगों की निगाह में इन की कोई इज्जत नहीं थी, जिस की इन्हें जरूरत भी नहीं थी.
जब ये अलग हुए तो लोगों ने स्वाभाविक अंदाजा यह लगाया कि अब यह कारोबार भी खत्म हो जाएगा, लेकिन तब भी कोई अंदाजा नहीं लगा पाया था कि अब जो होने जा रहा है उस के मुकाबले पिछला तो कुछ भी नहीं था. देश में असल सट्टे की शुरुआत तो इन के अलग होने के बाद हुई, जब दोनों ने ही अलगअलग नंबरों वाला सट्टा खिलाना शुरू किया. यह तो इन्हें समझ आ ही गया था कि यह सब से सुरक्षित धंधा है और लोग दांव लगाने के लिए सूत के दामों के मोहताज नहीं हैं. कल्याणजी ने पर्चियों के जरिए सट्टा खिलाना शुरू किया. इस में 0 से लेकर 9 तक 10 अंक पर्चियों पर लिखे जाते थे और लोगों को किसी एक अंक पर दांव लगाने को कहा जाता था, जिस का अंक खुलता था उसे 1 के 9 रुपए दिए जाते थे.
यह शैली रतन को भी जमी तो उन्होंने भी अलग से सट्टा खिलाना शुरू कर दिया. यह लगभग लौटरी जैसा था, जो पसंद इसलिए किया गया कि इस में ड्रा दांव लगाने वालों के सामने किया जाता था और भुगतान भी हाथोंहाथ होता था. इस में टिकट खरीदने का भी झंझट नहीं था और न्यूनतम राशि से भी इसे खेला जा सकता था. कल्याणजी छोटे से संतुष्ट रहने वाले कारोबारी थे लेकिन रतन विकट के महत्त्वाकांक्षी थे. उन्होंने कारोबार बढ़ता देख सट्टे में नएनए और ऐसेऐसे प्रयोग किए कि देखते ही देखते यह कारोबार देश भर में पसर गया. 70 के दशक तक तो उन का सट्टे का कारोबार 100 करोड़ रुपए रोजाना टर्नओवर वाला हो गया था और यह प्रचार खुद रतन ने मीडिया के जरिए करवाया था. तब मीडिया का मतलब अखबार और पत्रिकाएं ही हुआ करता था.
कई अखबारों ने अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए सट्टे के नंबर भाग्यशाली अंकों के नाम पर छापना शुरू कर दिए, इस से सटोरियों का भरोसा सट्टे में और बढ़ने लगा. खुराफाती दिमाग के मालिक रतन ने सट्टे को और लोकप्रिय और रोमांचकारी बनाने के लिए इस में ताश के पत्तों का इस्तेमाल किया, जिस ने देश में हाहाकार मचा दिया. सट्टा अब दिन में 2 बार खिलाया जाने लगा. पहले वाले को ओपन और दूसरे को क्लोज नाम दिया गया. इस नए और दिलचस्प तरीके में ताश की एक गड्डी को 3 हिस्सों में बांट कर रखा जाता था फिर हर गड्डी में से एकएक पत्ता उठाया जाता था.
मान लिया जाए कि पहला पत्ता नहला दूसरा इक्का और तीसरा पंजा खुला तो बढ़ते क्रम में इसे 159 लिखा जाता था, जिसे पत्ती कहा गया. इन तीनों अंकों को जोड़ने पर योग 15 आया. इन में से दाहिने अंक 5 को खुला हुआ अंक माना गया. जिन्होंने पंजे पर पैसा लगाया होता, उन्हें वह 9 गुना कर वापस दे दिया जाता था. अब मान लिया जाए कि सौ लोगों में से 8 ने पंजे पर दांव लगाया था तो उन्हें 72 रुपए का भुगतान हुआ. बचे 28 रुपए रतन के हो जाते थे. चूंकि लाखोंकरोड़ों के दांव लगते थे इसलिए उसी अनुपात में रतन की कमाई बढ़ रही थी. क्लोज, ओपन के 4-5 घंटे बाद इसी तर्ज पर खोला जाता था.
अब अगर उस में अट्ठा दुग्गी और बादशाह खुले तो पत्ती बढ़ते क्रम में बनी 238 जिसका जोड़ हुआ 13, इस का दाहिना अंक 3 यानी तिग्गी खुला हुआ माना गया इस तरह ओपन और क्लोज की जोड़ी बनी 53 की. जिन्होंने 53 की जोड़ी पर एक रुपया लगाया होता था, उन्हें एवज में 90 रुपए मिलते थे. लोगों को ललचाने के लिए पत्ती से पत्ती का विकल्प भी दिया जाने लगा यानी जिस ने ओपन में 159 और क्लोज में 238 पर दांव लगाया उसे 1 रुपए के 900 रुपए दिए जाने लगे. सिंगल पत्ती पर पैसा लगाने वालों को भी 90 गुना पैसा दिया जाता था. यानी जिस ने 159 या 238 पर एक रुपया लगाया, उन्हें जीतने पर 90 रुपए दिए जाने का प्रावधान रखा गया.
ऐसा बहुत कम होता था कि किसी की पत्ती या पत्ती से पत्ती खुल जाए. लेकिन 100 में से 4-5 की जोड़ी खुलने लगी तो सटोरियों को यह फायदे का सौदा साबित हुआ क्योंकि जो जोड़ी पर 10 रुपए लगाता था, उसे 900 रुपए मिलते थे और जिन का दांव नहीं लगता था वे एकदम से कंगाल नहीं हो जाते थे. उन की जेब से महज 10 रुपए जाते थे, जिन्हें कवर करने के लिए वे अगले दिन फिर अपनी गाड़ी कमाई में से दांव लगाते थे. हजार-2 हजार में से 40-50 की ही जोड़ी लगती थी और पत्ती से पत्ती तो 8-10 हजार में से एक की लगती थी.
लेकिन सच यह भी है कि कइयों को 9 से ले कर 90 गुना तक पैसा मिलता था लिहाजा सट्टा गांवदेहातों, कस्बों से ले कर महानगरों तक की दैनिक जिंदगी का हिस्सा बनने लगा, जिस में एक वक्त ऐसा भी आया कि रतन खत्री का रोल तयशुदा वक्त पर ड्रा निकालने का रह गया. हर जगह सट्टे के छुटभइए से ले कर धन्ना सेठ तक उस के एजेंट बन गए. इन लोगों को सट्टे की भाषा में खाइबाज कहा जाता है. ये लोग दिन भर का पैसा इकट्ठा कर उस का उतारा या पाना अपने से ऊपर वाले के ऊपर कमीशन पर करते थे, जो ड्रा खुलने के बाद विजेताओं को भुगतान करता था. सट्टे में गहरे तक डूबे लोग भी जानतेमानते थे कि यह बहुत से लोगों से पैसा ले कर उस का छोटा सा हिस्सा कुछ लोगों में बांटने की प्रक्रिया है, जिस में कोई बेईमानी नहीं होती.
रतन खत्री का ओपन क्लोज, जोड़ी पत्ती और पत्ती से पत्ती दिनों दिन लोकप्रिय हो रहे थे. यह कारोबार अधिकांश जगह पुलिस की सरपरस्ती में होता था. चूंकि इस में कोई हिंसा नहीं होती और हर पुलिस चौकी और थाने में हफ्ता बिना किसी चूंचपड़ के पहुंच जाता था इसलिए इसे खूब छूट और शह मिली. यह नेटवर्क देश का सब से बड़ा नेटवर्क साबित हुआ जो लैंडलाइन फोन के जमाने में भी खूब फलाफूला था. ड्रा की जानकारी ट्रंक काल के जरिए मिनटों में देश भर में पहुंच जाती थी कि ओपन और क्लोज में कौन सी पत्ती खुली, कौन सी जोड़ी बनी और सिंगल नंबर क्या खुला.
जैसेजैसे टेक्नोलौजी आती गई, वैसेवैसे रतन खत्री ने भी इसे अपनाया और अब यह कारोबार कंप्यूटर के जरिए औनलाइन होने लगा है. सट्टे के बड़े नुकसानों में से एक है लोगों का लालच के चलते अंधविश्वासी हो जाना. अधिकांश सटोरिए ऐसीऐसी बेवकूफियां करते थे कि उन पर तरस ही आता है. किसी को सुबह सड़क चलते गर्भवती महिला दिख जाए तो वह मान लेता था कि आज नहला खुलेगा इसी तरह कोई गंजा आदमी दिख जाए तो दांव जीरो यानी मिंडी पर लगा दिया जाता था. कई सटोरिए बच्चों से सट्टे का नंबर पूछते नजर आते थे, उन का मानना होता था कि बच्चों के मुंह से भगवान बोलता है यानी भगवान का एक काम सट्टे का नंबर देना भी था.
इन लालची सटोरियों को लूटने के लिए ज्योतिषियों की फौज भी धंधा करने लगी जो शर्तिया सट्टे के नंबर बताती थी. सट्टा लगाने के पहले सटोरिए इन ठगों के पास जा कर लकी नंबर जानने के लिए दक्षिणा चढ़ाते थे. बढ़ते कारोबार की गंगा में हाथ धोने के लिए अखबार वालों ने भी अपनी जिम्मेदारी भूल कर नंबरों का खेल शुरू कर दिया था. नागपुर के 3 बड़े साप्ताहिक तो इसीलिए बिकते थे कि उन में सप्ताह भर के सट्टे के नंबर छपते थे. इतना ही नहीं, ये अखबार अगले सप्ताह खुलने वाले संभावित नंबर भी छापते थे. सट्टे के सब से बड़े केंद्र मुंबई के भी कई अखबार ये नंबर प्रकाशित करते थे यानी इस कारोबार को बढ़ाने में इन का भी खासा योगदान था.
ये लोग 3-4 तरह के नंबर छाप देते थे, जिन में से अकसर कोई खुल भी जाता था क्योंकि 10 में से 4 अंक बताने पर इन का जोखिम कम होता था और बताया नंबर न खुलने पर कोई इन का गिरहबान नहीं पकड़ता था, बल्कि अपनी किस्मत को दोष देने लगता था. आदतन सटोरियों के पास तो पिछले 60 साल तक का रिकौर्ड मौजूद मिल जाता था जो यह मानते थे कि इतिहास की तरह सट्टे के नंबर भी अपने आप को दोहराते हैं. ये लोग किसी खास दिन या तारीख को खास नंबर पर दांव खेलते थे और दिनरात बेवजह का यह हिसाबकिताब लगाते रहते थे. मसलन 15 जुलाई, 2020 को वही नंबर खुलना चाहिए जो 15 जुलाई, 1980 को खुला था. बिलाशक आंकड़ों का अपना अलग रोमांच है, लेकिन इस के जुनून ने जिस तादाद में आम लोगों की जिंदगी तबाह की, उतनी शायद धार्मिक अंधविश्वासों ने भी नहीं की होगी.
लौकडाउन के दिनों में बीती 10 मई को सैंट्रल मुंबई स्थित नवजीवन सोसाइटी में 88 साल की पकी उम्र में जब सट्टा किंग रतन खत्री ने आंकड़ों की अपनी मायावी दुनिया को अलविदा कहा तो उतनी हलचल हुई नहीं, जितनी होनी चाहिए थी. तब सट्टा भी बंद था, इसलिए इस मौत की चर्चा सट्टा जगत में ही हो कर रह गई कि एक इतिहास खत्म हो गया. इस इतिहास ने कितनों को बरबाद और कितनों को आबाद किया, इस का कोई हिसाबकिताब किसी के पास नहीं. लेकिन यह बात किसी सबूत की मोहताज नहीं कि रतन खत्री ने आम लोगों की जुएसट्टे की प्रवृति को भुनाते हुए अपनी एक अलग बादशाहत खड़ी की, जिस की मिसाल शायद ही कहीं मिले.
पारसियों जैसी वेशभूषा वाले इस शख्स की जिंदगी का विवादों से भी कम नाता रहा. एक मिथक जरूर सट्टे की दुनिया में बड़े चटखारे ले ले कर कहा सुना जाता है कि एक वक्त में सट्टे के बढ़ते कारोबार से तबाह लोगों की तादाद देख चिंतित तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रतन खत्री से सट्टा बंद कर देने को कहा था. इस पर रतन खत्री ने उन से कहा था कि आप सरकारी लौटरी बंद कर दीजिए, मैं सट्टा बंद कर देता हूं. इस हाजिरजवाबी से चिढ़ी इंदिरा गांधी ने रतन खत्री को भी इमरजेंसी के दौरान जेल में ठूंस दिया था. तब तकरीबन डेढ़ साल सट्टा बंद रहा था, लेकिन जेल से रिहा होने के बाद रतन ने फिर इसे चालू कर दिया था और अपने साम्राज्य को और ज्यादा विस्तार भी दिया था. शायद ही नहीं, तय है उस के मन से इंदिरा गांधी और कानून का बचाखुचा खौफ खत्म हो चुका था.
यह वह दौर था जब मुंबई में अंडरवर्ल्ड के रोजरोज छोटेबड़े डौन पैदा हो रहे थे लेकिन किसी की हिम्मत रतन पर हाथ डालने की नहीं होती थी. अपने नाजायज कारोबार को कामयाबी के साथ चलाते रतन खत्री का विवादों से कोई खास नाता न रहना बताता है कि वह एक कुशल प्रबंधक था, जिस के नाम का सिक्का 50 साल से भी ज्यादा चला. वह कोई रहस्यमय व्यक्तित्व नहीं था, लेकिन उस के बारे में लोगों को उतनी ही जानकारी रहती थी, जितनी कि वह चाहता था. फिल्मी दुनिया से रतन के संबंध थे, पर वे सतही थे. ऐसा कहा जाता है कि वह फिल्मकारों को पैसा फायनैंस करता था. मशहूर निर्मातानिर्देशक और अभिनेता फिरोज खान की साल 1975 में प्रदर्शित फिल्म ‘धर्मात्मा’ रतन खत्री की जिंदगी पर ही आधारित थी.
इस फिल्म में रतन खत्री की भूमिका दिग्गज खलनायक और चरित्र अभिनेता प्रेमनाथ ने निभाई थी. यह किरदार सट्टा प्रेमियों ने खासतौर से बहुत पसंद किया था और लोग सट्टे के मसीहा की जिंदगी नजदीक से देखने टूट पड़े थे. अपने जमाने की सुपरडुपर इस फिल्म में तत्कालीन 2 टौप की नायिकाएं रेखा और हेमामालिनी भी थीं. इस फिल्म की अधिकांश शूटिंग अफगानिस्तान में हुई थी. लेकिन फिल्म चलने की बड़ी वजह प्रेमनाथ का धर्मात्मा वाला किरदार था, जो हमेशा गरीबों की मदद के लिए तैयार रहता था. इस किरदार ने देश भर में रतन खत्री की इमेज एक ऐसे रईस आदमी की गढ़ी थी, जो वाकई में धर्मात्मा था और हमेशा दुश्मनों से घिरा रहता था.
फिल्म के वे दृश्य खूब पसंद किए गए थे जिन में धर्मात्मा ताश के पत्तों से सट्टे का नंबर खोलता था जो स्क्रीन पर चमकते तो ओपन और क्लोज की हलचल मच जाती थी. ऐसा माना जाता है कि धर्मात्मा के किरदार को वास्तविकता देने और प्रभावी बनाने में रतन खत्री ने फिरोज खान की हर तरह से मदद की थी. रतन खत्री के न रहने से क्या सट्टा बंद हो जाएगा, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं. हालांकि कोरोना से इस कारोबार पर भी फर्क पड़ा है लेकिन अभी भी कल्याणजी का सट्टा छुटपुट ही सही, चल रहा है. मुमकिन है रतन का भी चलने लगे लेकिन उस का जादू और जुनून पहले जैसा नहीं रहेगा. क्योंकि सट्टा भी अब हाइटेक हो चला है और इस के नएनए संस्करण ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं, जिन में क्रिकेट सब से ऊपर है.
क्रिकेट का सट्टा भी रतन के सट्टे की तरह गांवदेहातों तक फैल गया है लोग इस में बरबाद भी हो रहे हैं. लेकिन इस में रतन खत्री की कुरसी पर कौन है, यह किसी को नहीं मालूम.