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एक दिन सेठ वली भाई चांदीवाला कंगाल हो गया. सिर्फ कंगाल ही नहीं हुआ बल्कि कर्जदार भी बन गया. उस की तबाही की दास्तान सिर्फ एक लफ्ज में बयान की जाए तो वो लफ्ज होगा ‘सट्टा’. यानी सेठ वली भाई जो अब सेठ नहीं रहा था, सट्टे और जुए में अपना सब कुछ हार गया था.

कर्ज मांगने वाले कुछ लोगों ने उस की हालत पर तरस खा कर चुप्पी साध ली थी, मगर हाशिम खान अलग किस्म का आदमी था. वह पैसे के मामले में रियायत का कायल नहीं था. जब उस ने देखा कि सेठ वली भाई दीवालिया हो गया है तो सख्ती से अपनी रकम का तकाजा शुरू कर दिया.

उस का आदमी हर तीसरे दिन आ कर वली भाई का दरवाजा खटखटा देता. पहले वह सलाम करता, फिर हाशिम खान का सलाम पहुंचाता और आखिर में कहता, ‘‘सेठ, मेरे लिए क्या हुक्म है?’’

वली भाई जवाब देता, ‘‘हाशिम खान को बोलना कि मुझे उस के पैसे की सब से ज्यादा फिकर है.’’

‘‘कोई बात नहीं सेठ. हम 3 रोज के बाद आ जाएगा.’’

‘‘अरे बाबा, तुम काहे को तकलीफ करता है. हम खुद पैसा पहुंचा देगा.’’

‘‘तकलीफ की क्या बात है सेठ, हम तो खाली हाशिम खान का सलाम बोलने आता है.’’

कुछ अरसे तक सलामकलाम का यह सिलसिला यूं ही चलता रहा. फिर एक रोज वली भाई ने दरवाजा खोला तो खुद हाशिम खान को दरवाजे पर खड़ा पाया. उस के दाएं बाएं 2 खौफनाक चेहरों वाले बदमाश खड़े थे. उन्हें देख कर वली भाई को अपने गले में कुछ अटकता सा महसूस हुआ.

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