Hindi Story : शब्बो अपनी मरजी से तवायफ नहीं बनी थी. उसे इस की ट्रेनिंग उस के अपने घर वालों ने ही दी थी. 16 साल की उम्र में उस के मामूजान ने उसे एक मर्द के साथ कमरे में धकेला था. इस के बाद तो उस के पास मुल्लामौलवी, साधुपुजारी, नेता, माफिया, अधिकारी आदि आते रहे. इस के बाद उसे समाज से ही नफरत सी हो गई. फिर एक दिन एक प्रोफेसर साहब ने उस की ऐसी जिंदगी बदली कि...

मैं एक तवायफ हूं. तवायफ होना बुरी बात है या अच्छी बात, यह तो मैं नहीं जानती. मैं तो बस इतना जानती हूं कि मैं अपनी मरजी से तवायफ नहीं बनी थी, बल्कि मेरी खाला ने मुझे मेरी अम्मी की ढलती उम्र, बीमारी और घर की माली हालत को ध्यान में रखते हुए मुझे तवायफ बना कर बाजार में खड़ा कर दिया था बिकने के लिए. मगर मैं कभी बिकी नहीं, केवल यह लोचदार गोरी देह बिकती रही, जो घुंघरुओं के साथ जब सज कर खड़ी होती थी तो मेरी दादी के जेवर उस पर खूब फबते थे.

मीना बाजार की तीसरी गली के आखिरी छोर के कोने वाला मकान दुमंजिला तो था ही, उस के दाएं हाथ मंदिर और बाएं हाथ मसजिद थी. जैसे वह 2 संस्कृतियों के संगम पर स्थित पावन धाम हो, जहां गरीबअमीर, पढ़ेलिखे, अनपढ़ और ग्रामीणशहरी सभी स्नेहिल स्नान कर स्वयं को कृतार्थ करते थे.

सीढिय़ां चढऩेउतरने वालों में विवाहितों की संख्या ज्यादा और कुंवारों की कम होती थी. वह जैसा भी था, अच्छा था. इस लिहाज से कि यह मकान दादी के जमाने से किराएदारी में था. इस के नीचे की मंजिल की फर्श लोना लगने और सीलन की वजह से टूटने लगी थी, मगर ऊपर के फर्श में अम्मीजान के जमाने में पत्थर लगाया गया था और इस इमारत की दूसरी मंजिल सजधज कर पूरे साजशृंगार के साथ सुगंधपूरित किसी दुलहन से कम न थी. दरवाजों और खिड़कियों के परदे नए थे, मगर रसोई से बेहतर उस के बाथरूम थे.

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