हिंदू धर्म की एक दिक्कत यह है कि परिवार का कोई व्यक्ति लापता हो जाए, तो न तो उसका कर्मकांड किया जा सकता है और न ही उस की कोई रस्म निभाई जा सकती है, जबकि यह जरूरी होता है. क्योंकि किसी को मृत तभी माना जाता है जब उस का अंतिम संस्कार हो जाए.
जिला फिरोजाबाद के गांव गढ़ी तिवारी के रहने वाले मुन्नालाल के सामने यही समस्या थी. उस का बेटा संजय पिछले एक साल से लापता था.
उसे मुन्नालाल ने खुद ढूंढा, रिश्तेदार परिचितों ने ढूंढा, पुलिस ने ढूंढा, लेकिन उस का कहीं कोई पता नहीं चला. मुन्नालाल एक साल से थाने के चक्कर लगालगा कर थक गया था. पुलिस एक ही जवाब देती थी, ‘तुम्हारे बेटे को हम ने हर जगह ढूंढा. जिले भर के थानों को उस का हुलिया भेज कर मालूमात की, तुम ने जिस का नाम लिया उसी से पूछताछ की. अब बताओ क्या करें?’
‘‘आप अपनी जगह ठीक हैं. साहब जी, पर क्या करूं मेरे सीने में बाप का दिल है, जो बस इतना जानना चाहता है कि संजय जिंदा है या मर गया. अगर मर गया तो कम से कम उस के जरूरी संस्कार तो कर दूं. मेरा दिल तड़पता है उस के लिए.’’
मुन्नालाल ने कहा तो पास खड़ा एक उद्दंड सा सिपाही बोला, ‘‘ताऊ, तेरा बेटा पिछले साल 11 अप्रैल को गायब हुआ था. जिंदा होता तो लौट आता, तेरा इंतजार करना बेकार है.’’
‘‘साब जी, कह देना आसान है. कलेजे का टुकड़ा होता है, बेटा. मेरी तो मरते दम तक आंखें खुली रहेंगी उसे देखने के लिए.’’ मुन्नालाल ने कहा तो थानेदार ने सिपाही की ओर देख कर आंखे तरेरी. वह वहां से हट गया.