अम्मी खुश थीं सायरा को उस के शादी के बाद आए पहले तोहफे दिला कर. सायरा खुश थी अपनी पसंद के तोहफे पा कर. वह कभी हरा और रेशमी गरारा उठा कर देखती, तो कभी सलमासितारों से जड़ी हरी ओढ़नी अपने सिर पर रख कर कहती, ‘‘देखिए अम्मीजान, इस का हरा रंग कितना अलग सा है. इस पर जड़े सितारे तो ऐसे लगते हैं जैसे पूरी कायनात के सितारे मेरी ओढ़नी पर आ कर अपनी महफिल सजा कर बैठे हों.’’
अम्मी बोलीं, ‘‘मेरी बच्ची की ओढ़नी यों ही हरीभरी रहे...’’ फिर दोनों हाथों से सायरा की बलाएं ले कर अपने पान से सुर्ख हो रहे होंठों से उसे चूम लिया.मैं अभी भी किताब में अपना सिर झुकाए चोर नजरों से इन सासबहू का लाड़दुलार देख रहा था. मन ही मन कुढ़ भी रहा था
सायरा से मेरा निकाह हुए 2 महीने हो गए थे. मैं अभी तक उस से अपना जुड़ाव महसूस नहीं कर पा रहा था. जुड़ाव महसूस भी कैसे करता? कुछ ऐसा महसूस करने के लिए जुड़ना जरूरी होता है. केवल किसी को ‘कबूल’ बोल देने भर से तो वह कबूल नहीं हो जाता.
यह अलग बात है कि काजी साहब के सामने किए इजहार को मैं अपनी जिंदगी के कयामत वाले दिन तक निभाने को तैयार हूं. हां, मगर अभी मुझे वक्त चाहिए खुद को समेटने के लिए. सलमा को भुलाने के लिए.
मैं क्या करूं... नहीं लुभाती सायरा की खूबसूरती, उस की चुलबुली सी अदाएं, उस का चहकना और मचलना मुझे कुछ भी नहीं भाता. मुझे हर वक्त अपने आसपास सलमा का सांवला सा संजीदा चेहरा ही नजर आता है.