बिहार में डेहरी औन सोन के रहने वाले मदन कुमार एक राष्ट्रीय अखबार के लिए ब्लौक लैवल के प्रैस रिपोर्टर का काम करते हैं. वे पत्रकारिता को समाजसेवा ही मानते हैं.

बेखौफ हो कर वे अपने लेखन से समाज को बदलना चाहते हैं, लेकिन उन के स्थानीय प्रभारी से यह दबाव रहता है कि खबर उन्हीं लोगों की दी जाए, जिन से उन्हें इश्तिहार मिलते हैं. जो इश्तिहार नहीं दे पाते हैं, उन की खबर बिलकुल नहीं दी जाए, भले ही खबर कितनी भी खास क्यों न हो.

मदन कुमार के प्रभारी उन लोगों के बारे में अकसर लिखते रहते हैं, जिन से उन्हें दान के तौर पर कुछ मिलता रहता है. भले ही वे लोग दलाली और भ्रष्टाचार कर के पैसा कमा रहे हैं. अपने ब्लौक के भ्रष्टाचारियों और दलालों की खबरों को ज्यादा अहमियत दी जाती है. उन के बारे में गुणगान पढ़ कर मन दुखी हो जाता है. कभीकभी तो उन के प्रभारी कुछ लोगों से मुंह खोल कर पैट्रोल खर्च, आनेजाने के खर्चे के नाम पर पैसे लेते रहते हैं.

वहीं मदन कुमार द्वारा काफी मेहनत और खोजबीन कर के लाई गई खबरों को नजरअंदाज कर दिया जाता है, न ही छापा जाता है या बहुत छोटा कर दिया जाता है, क्योंकि उन संस्थाओं से प्रभारी महोदय को नाराजगी पहले से रहती है या कोई ‘दान’ नहीं मिला होता है, इसलिए वे कुछ दिनों से अपने प्रभारी से बहुत नाराज हैं.

वे अकसर कहते हैं कि अब पत्रकारिता छोड़ कर दूसरा काम करना ठीक रहेगा और इस के लिए वे कोशिश भी कर रहे हैं. उन्हें इस प्रकार की दलाली पत्रकारिता से नफरत होती जा रही है.

मदन कुमार का कहना है, ‘‘अगर बेईमानी से ही कमाना है तो फिर पत्रकारिता में आने की क्या जरूरत है? बेईमानी के लिए बहुत सारे रास्ते खुले हुए हैं. और फिर मुंह खोल कर किसी से पैट्रोल और आनेजाने के खर्चे के नाम  पर पैसे मांग कर अपना ही कद छोटा करते हैं.

‘‘आम लोग इस तरह के बरताव से सभी रिपोर्टरों को एक ही तराजू पर तौलते हैं, इसीलिए आज स्थानीय पत्रकारों को कोई तवज्जुह नहीं देता है. लोग उन्हें बिकाऊ और दो टके का सम झते हैं, जबकि पत्रकारिता देश का चौथा स्तंभ माना जाता है.

‘‘इस तरह के बेईमानों के साथ काम करने पर मन को ठेस पहुंचती है. ईमानदारी से काम करने वाले के दिल को यह सब कचोटता है, खासकर तब जब आप का बड़ा अधिकारी ही बेईमान हो. आप उस का खुल कर विरोध भी नहीं कर सकते हैं. विरोध करने का मतलब है, अपनी नौकरी को जोखिम में डालना.’’

औरंगाबाद के रहने वाले नीरज कुमार सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं. सरकारी विद्यालय में बच्चों को मिड डे मील के लिए सरकार द्वारा चावल और पैसे दिए जाते हैं. उन के विद्यालय के प्रधानाध्यापक मिड डे मील के चावल और पैसे की हेराफेरी करते रहते हैं.

जब कभी बच्चों की लिस्ट बनानी हो, तो उसे नीरज कुमार ही तैयार करते हैं. वे जानते हैं कि गलत रिपोर्ट बना रहे हैं, फिर भी वे उस गलत रिपोर्ट का विरोध नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें हर हाल में प्रधानाध्यापक की बात माननी पड़ती है.

एक बार प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को इस बारे में शिकायत की थी. तब प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी का कहना था, ‘आप अपने काम से मतलब रखिए. दूसरों के काम में अड़ंगा मत डालिए. आप सिर्फ अपने फर्ज को पूरा कीजिए.’

बाद में नीरज कुमार को पता चला कि इस हेराफेरी में प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी को भी कमीशन के रूप में पैसा मिलता है. उन का कमीशन फिक्स है, इसलिए वे ऐसे शिक्षकों को हेराफेरी करने से रोकते नहीं हैं, बल्कि सपोर्ट करते हैं. इस सब में नाजायज कमाई करने का एक नैटवर्क बना हुआ है.

तब से नीरज कुमार अपने विद्यालय के गरीब बच्चों के निवाला की हेराफेरी करने वाले अपने प्रधानाचार्य का विरोध नहीं करते हैं. उन का कहना है, ‘‘मैं सिर्फ अपने फर्ज को पूरा करता हूं. यह हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है, इसलिए मैं इस के बारे में चुप रहता हूं.

‘‘मैं सिर्फ पढ़ानेलिखाने पर ध्यान देता हूं. मैं आर्थिक मामलों में कुछ भी दखलअंदाजी नहीं करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि ऐसा करने का मतलब है अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना यानी अपना ही नुकसान करना.

‘‘वैसे भी आप शिकायत करने किस के पास जाएंगे? जिन के पास भी जाएंगे यानी आप ऊपर के अधिकारी के पास जाएंगे तो उस की कमाई भी उस हेराफेरी से होती है, इसलिए वैसे लोग उस हेराफेरी को रोकने से तो रहे. बदले में आप का नुकसान भी कर सकते हैं. आप का ट्रांसफर करा देंगे.

‘‘आप को दूसरे मामले में फंसा कर नुकसान पहुंचाना चाहेंगे. अगर आप को शांति से नौकरी करनी है, तो अपना मुंह बंद रखना ही होगा.’’

इस तरह की बातों से यह साफ है कि जब बेईमानों के साथ काम करना पड़े या साथ देना पड़े, तो यह जरूरी है कि हम उन से अपनेआप को अलगथलग रखें. हमें जो काम और जिम्मेदारी दी गई है, उस को बखूबी निभाएं.

बेईमान सहकर्मी के बारे में जहांतहां शिकायत करना भी ठीक नहीं है. इस  से आप की उस से दुश्मनी बढ़ने लगती है. शिकायत से कोई फायदा नहीं  होता है. आप के बनेबनाए काम भी बिगड़ जाते हैं, इस से खुद का ही नुकसान होता है. आप दूसरों को सुधारने के फेर में खुद का ही नुकसान कर लेते हैं.

अगर आप अपनी भलाई चाहते हैं, तो ज्यादा रोकटोक न करें. उन की बेईमानी की कमाई में किसी तरह का अड़ंगा न डालें.

मुमकिन हो, तो उन्हें किसी दूसरे तरीके से बताने की कोशिश करें. अगर वे आप के इशारे को समझ जाते हैं, तो उचित है वरना अपने काम से मतलब रखें, क्योंकि उन का सीधा विरोध करने पर दुश्मनी महंगी पड़ सकती है.

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