भोपाल की सड़कों पर बेतरतीब बिखरा हुआ सामान, जगहजगह इंसानों और जानवरों की लाशें ही लाशें पड़ी हुई थीं. दिसंबर में शादियों का सीजन शुरू हो जाता है तो टुल बाराती और बैंडबाजे वाले तक सड़कों पर मृत पड़े हुए थे.
जैसेतैसे वापस हिम्मत कर के मैं स्टेशन परिसर में दाखिल हुआ तो वहां भी कुछ ऐसा ही मंजर दिखा. यात्रियों के बैग, मुंह से झाग उगलते शव और चारों तरफ सन्नाटा. मतलब श्मशान घाट में तब्दील एक स्टेशन और लाशों में तब्दील लोग.
मैं जब अपने पिता की केबिन में घुसा तो एक अंकल जो शायद रेलवे कर्मचारी थे, वहां बैठे दिखे. मैं ने पता किया तो उन्होंने बताया कि आप के पिता (डिप्टी सुपरिटेंडेंट) की हालत ज्यादा खराब थी और वह बेहोश पड़े हुए थे तो रिलीफ टीम ने उन को एंबुलेंस से हमीदिया अस्पताल रेफर कर दिया.
इस के बाद साइकिल उठा कर मैं हमीदिया पहुंचा तो वहां भी लाशों और जिंदगी मौत के बीच जंग लड़ रहे लोगों को देख कर सिहर उठा. डाक्टरों पर जैसा बन पड़ रहा था, वैसा इलाज कर रहे थे, क्योंकि किसी को मालूम नहीं था कि हवा में उड़े जहर का सही इलाज क्या है?
अस्पताल परिसर में अपने लोगों को गंवाने वालों की हालत देख मैं हताश निराश घर लौट आया. घर में हम सभी लोग बेहद चिंतित थे, लेकिन देखा कि एकाएक पिताजी करीब सुबह साढ़े 11 बजे दरवाजे पर लडख़ड़ाते हुए आ गए. अस्पताल से उन को प्राथमिक उपचार दे कर घर के लिए रवाना कर दिया गया था. लेकिन जब हम ने देखा कि पिता की आंखों का एरिया फूल के कुप्पा और लाल हो चुका था और शरीर भी लगभग पूरी तरह जवाब दे चुका था. गले से आवाज नहीं निकल पा रही थी.