खाड़ी देशों से कमाई कर के आने वाले लोगों के चमक दमक वाले कपड़े, आटोमैटिक घडि़यां, तरहतरह के खूब अच्छे लगने वाले टेपरिकौर्डर, छोटेछोटे रेडियो तथा बटन दबाने से खुलने वाले छाते देख कर बचपन में मैं भी सपने देखने लगा था कि बड़ा हो कर जब मैं कमाने लायक होऊंगा तो इन्हीं लोगों की तरह खाड़ी देशों में नौकरी करने जाऊंगा. लेकिन जैसेजैसे मैं बड़ा होता गया, मेरी आंखों से वह सपना ओझल होता गया.
किन्हीं कारणों से भले ही खाड़ी देशों में नौकरी करने जाने का मेरा सपना पूरा नहीं हुआ, लेकिन केरल के एक गांव के मजदूर बाप की बेटी सोना ने बड़ी हो कर खाड़ी देश जाने का जो सपना बचपन में देखा था, कुछ पाईपाई जोड़ कर तो कुछ रिश्तेदारों से तो कुछ महाजन से कर्ज ले कर पूरा कर ही लिया.
सोना का बाप रातदिन मेहनत कर के उसे और उस की जुड़वां बहन वीना को पढ़ालिखा कर इस काबिल बनाना चाहता था कि उस की ये बेटियां उस की तरह किसी के यहां गुलामी न करें. वह चाहता था कि बहुत ज्यादा नहीं तो उस की दोनों बेटियां इतना जरूर पढ़लिख लें कि कम से कम अपने लिए 2 जून की रोटी और कपड़े का इज्जत के साथ जुगाड़ कर सकें. अपने बच्चों को भी कायदे से पढ़ालिखा सकें.
बेटियों ने भी बाप की तरह मेहनत कर के उस के सपने को साकार करने में कोताही नहीं बरती. बाप के पास इतना पैसा नहीं था कि वे उच्च शिक्षा ग्रहण करतीं. फिर भी 12वीं कर के उन्होंने नर्सिंग की ट्रेनिंग जरूर कर ली, जिस से इतना तो हो ही गया कि वे कहीं भी नौकरी कर के इज्जत की जिंदगी जी सकती थीं. जब दोनों बहनें नर्स की ट्रेनिंग कर रही थीं, तभी से वे सपना देखने लगी थीं कि अगर वे किसी तरह खाड़ी के किसी देश चली जाती हैं तो कुछ ही सालों में इतना कमा लाएंगी, जितना भारत में शायद पूरी जिंदगी में न कमा सकें.