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यह सच है कि अगर मेरे शौहर सुलतान अहमद मुझ से मेरी जान भी मांगते तो मैं देने में एक लमहे की भी देर न करती. उन का छोटे से छोटा काम  भी मैं खुद किया करती थी, हालांकि घर में नौकरनौकरानियां भी थीं. इस में ताज्जुब की कोई बात नहीं थी. अकसर औरतें अपने पतियों की ताबेदारी में खुशी महसूस करती हैं. फिर भी उन्होंने कभी मेरे साथ मुसकरा कर बात नहीं की थी.

दूसरों के सामने तो वह मेरे साथ नरम पड़ जाते थे, मगर तनहाई में या बच्चों के सामने बिलकुल अजनबी से बन जाते थे. ऐसा भी नहीं था कि वह स्वभाव से ऐसे थे. दूसरों के लिए वह बहुत हंसमुख थे. खासतौर पर बच्चों पर तो जान छिड़कते थे. उन के बीच वह बेतकल्लुफ दोस्त बन जाते थे.

उन की हर फरमाइश मुंह से निकलते ही पूरी किया करते, मगर मेरे लिए उन के पास सिवाय बेगानगी के और कुछ नहीं था. मुझे देखते ही सुलतान अहमद के चेहरे पर अजीब सी संजीदगी भरी सख्ती छा जाती. अगर वह बोल रहे होते तो मेरे आते ही खामोश हो जाते. हमारा बेडरूम साझा था, मगर वह वहां देर रात को आते थे. घर में उन का अधिक समय अपने स्टडी रूम में गुजरता था. वह कभी मेरे साथ शौपिंग के लिए नहीं गए.

सुलतान अहमद आला ओहदे पर लगे हुए थे. दफ्तर की तरफ से उन्हें मकान और गाड़ी मिली हुई थी. वह अपनी सारी तनख्वाह अपना खर्च निकाल कर मेरे हवाले कर देते थे और फिर पलट कर यह नहीं पूछते थे कि मैं ने क्या खर्च किया, कहां खर्च किया, क्यों खर्च किया और क्या बचाया.

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