संस्था में सुनील से मुलाकात के होने के बाद मुक्ता के मन में संस्था से निकल कर अपनी लाइफ को अपनी तरह से जीने की उम्मीद जागी थी. सुनील ने भी उस की सोच को नए पंख दे दिए थे. लेकिन यह पंख भी मुक्ता को एक टुकड़ा सुख से ज्यादा कुछ न दे सके.

आज सुबह से ही न जाने क्यों मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था. किसी अनहोनी आशंका से मेरा मन घिरा हुआ था. मैं चाहते हुए भी स्वयं को संयत नहीं रख पा रहा था. जल्दीजल्दी नाश्ता किया और औफिस के लिए निकल पड़ा. मेरी पत्नी मानसी ने एकदो बार पूछा भी परंतु मैं उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया. बस, अनमने मन से कहा, ''नहीं, बस यूं ही, औफिस में थोड़ा ज्यादा काम है.’’ कह कर मैं ने बात टाल दी. अभी मैं अपने घर के दरवाजे तक भी नहीं पहुंचा था कि पीछे से मानसी ने आवाज दे कर याद दिलाया कि आप कार की चाबी और टिफिन बौक्स तो घर पर ही भूल गए हैं. वह मेरे पास आ कर बोली, ''तबीयत ठीक नहीं है तो मत जाओ.’’ 

जवाब में मैं ने कुछ नहीं कहा और बेमन से औफिस चला गया. अभी मैं औफिस में अपने कामों को देख ही रहा था कि याद आया आज तो मैं ने अपनी केबिन में रखे छोटे से मंदिर की दीयाबाती भी नहीं की. क्या हो गया है मुझे आज! मैं सोचने लगा. तब तक औफिस का चपरासी टेबल पर चाय और पानी का गिलास रख कर जाने लगा तो मैं ने उस से कहा, ''मिसेज शर्मा को भेज देना.’’ फिर कुछ सोच कर बोला, ''अच्छा रहने दो, मैं बाद में बुला लूंगा.’’ वह मेरा मुंह देखने लगा.

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