इफ्तिखार अहमद को लगा कि यह आदमी अदालत की काररवाही से अच्छी तरह वाकिफ है. इसे पता है कि अदालत में जज अच्छे वकीलों की बात का जल्दी विरोध नहीं करते. अगर दलीलें न दी जाएं तो केस कमजोर हो जाता है.
मगर इफ्तिखार अहमद वकील थे, उन्होंने तर्क जारी रखे, ‘‘इस तरह नहीं होता. अगर मैं दलीलें नहीं दूंगा तो खुद शक के घेरे में आ जाऊंगा. अगर मैं ने अली भाई के विरोध में दलीलें नहीं दीं तो जज समझ जाएगा कि मुझ पर दबाव डाला गया है. इस के बाद तो जमानत की उम्मीद और कम हो जाएगी. मेरी जरा भी लापरवाही पर जज को संदेह हो सकता है.’’
इफ्तिखार अहमद के इन तर्कों पर वह आदमी सोच में पड़ गया. इस के बाद उस ने कहा, ‘‘ठीक है, मैं तुम से थोड़ी देर बाद बात करता हूं. और हां, एक बात याद रखना, तुम्हारे ऊपर हमारी नजर रहेगी, किसी से बात करने की कोशिश मत करना.’’
‘‘ठीक है जी, मैं किसी से कोई बात नहीं करूंगा, क्योंकि मुझे अपनी बेटी दुनिया में सब से प्यारी है.’’
और फोन कट गया.
इफ्तिखार अहमद ऐसी जगह खड़े थे, जहां आसानी से उन पर नजर रखी जा सकती थी. पार्किंग में गाडि़यां आजा रही थीं, लोग भी आजा रहे थे. उन्होंने घड़ी देखी, साढ़े 9 बज रहे थे. उसी समय उन का अपना फोन बजा. उन्हें एक मुकदमा और देखना था, उसी मुवक्किल का था. लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया. वह उस के आदेश की अवहेलना भला कैसे कर सकते थे, बेटी की जिंदगी का सवाल था.