अली भाई की भी हालत खराब थी. वे अली भाई को ले कर अंदर पहुंचे तो जज अपनी सीट पर बैठे थे. उन्होंने इफ्तिखार अहमद की ओर देख कर पूछा, ‘‘आप की बच्ची घर पहुंच गई?’’
‘‘जी सर, लेकिन अगवा हुई बच्ची मेरी नहीं थी. सिर्फ उस का नाम दुआ था.’’ इफ्तिखार अहमद ने कहा.
‘‘लेकिन आप ने तो कहा था कि वह बच्ची आप की थी?’’ जज ने हैरानी से कहा.
‘‘जी सर, जब मुझे पता चला कि मेरी बेटी दुआ का अपहरण कर लिया गया है और वह बेरहम अपराधियों के हाथों में है तो मैं परेशान हो उठा. उसे सकुशल छोड़ने के लिए मुझ से कहा गया कि मैं अली भाई की जमानत में रुकावट न डालूं. आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि उस समय मेरी क्या हालत हुई होगी. लेकिन जब उन लोगों ने दुआ से मेरी बात कराई तो मुझे पता चल गया कि वह मेरी बेटी दुआ नहीं है .
‘‘क्योंकि मेरी दुआ हकलाती है. वह साफ नहीं बोल पाती, जिस का इलाज चल रहा है. जबकि उस बच्ची ने मुझ से साफ लहजे में बात की थी. उसी से मैं समझ गया था कि अपहर्ताओं ने गलत बच्ची को उठा लिया है.
सच्चाई जान कर भी मेरे जमीर ने ये गंवारा नहीं किया कि मैं अपनी कामयाबी के लिए एक मासूम को बलि चढ़ा दूं. दूसरी ओर मैं यह भी नहीं चाहता था कि अहम मुकदमे का जालिम गुनहगार छूट जाए.’’ इफ्तिखार अहमद ने पूरी बात एक ही सांस में कह दी.
‘‘बच्ची का अपहरण किन लोगों ने किया था?’’ जज ने पूछा.