Hindi Stories: गांव में भेड़बकरियां चराने वाली अनपढ़ वारिस के अब्बू ने 13 साल की उम्र में उस का निकाह करना चाहा तो वह घर छोड़ कर भाग गई. इस के बाद उस की जिंदगी में कैसे बदलाव आया कि आज वह रेगिस्तान का फूल बन गई है. मेरा पूरा नाम है वारिस डिरी. मेरा जन्म सन 1965 में सोमालिया के बौर्डर पर स्थित रेगिस्तानी क्षेत्र के गालकायो कस्बे के निकट एक गांव में हुआ था.
वहां बस तपती रेत के टीले थे. कोसों दूर तक पानी जैसी किसी चीज का नामोनिशान नहीं था. महीनों तक वर्षा का इंतजार करना पड़ता. लंबे इंतजार के बाद जब वर्षा होती तो बंजर रेत में संतरीपीले रंग के फूल खिलते, जिन्हें वारिस कहते हैं. इन्हीं फूलों के नाम पर मेरा नाम वारिस रखा गया था. मैं थी भी फूल सी, पर नसीब शायद कांटों भरा था. मेरा परिवार सोमालिया के ग्वालों से था. बचपन से ही मेरी परवरिश स्वतंत्र माहौल में हुई. मैं पलपल कुदरत के करीब थी. मेरी धड़कन, आवाज, अंदाज और सांसों में प्रकृति के नजारे बसे थे. हम भाईबहनों की टोली हिरन, लोमड़ी, खरगोश, जिराफ, जेबरा आदि जानवरों के साथ सुबह से ही जंगल में भागती फिरती.
जैसेजैसे उम्र बढ़ी, मैं खुशियों से महरूम होती गई. 5 वर्ष की उम्र में मुझे जिंदगी से डर लगने लगा. वैसे भी अफ्रीकी महिलाओं के लिए हर कदम पर कठिनाइयां होती हैं. महिलाएं अफ्रीकी समाज का आधार हैं. घर चलाने का बोझ उन्हीं पर होता है, पर घर के महत्त्वपूर्ण निर्णय वे नहीं ले सकतीं. परिवार का ही नहीं, वे अपनी जिंदगी का भी निर्णय नहीं ले सकतीं. एक तरह से वे पुरुष समाज के हाथों की कठपुतली हैं यानी औरत की हर इच्छा, हर खुशी पर पुरुष का अधिकार है. यातनाएं, पीड़ा जैसे औरत की जिंदगी का एक हिस्सा हैं.






