सन 1988 तक शोभराज जेल में रहा और मुकम्मल शांति से रहा. तिहाड़ जेल में वह आदत के मुताबिक किताबें मंगा कर पढ़ता रहा. इस में कोई शक नहीं कि वह एक अच्छा पाठक और लेखक भी था.
कम पढ़ेलिखे शोभराज की फिलासफी में भी गहरी दिलचस्पी थी. वह अकसर जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रैडरिक नीत्शे की किताबें पढ़ता रहता था. यह वही नीत्शे थे जिन का यह वाक्य आज तक भी खूब चर्चित है कि ईश्वर की मृत्यु हो गई है.
मुमकिन है अपराधबोध से ग्रस्त शोभराज नास्तिक कहे जाने वाले नीत्शे की थ्योरी में यह खोजता रहा हो कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है भी या नहीं. मुमकिन यह भी है कि वह दैवीय सजाओं से डरता हो.
लेकिन एक जरायमपेशा मुलजिम का दर्शनशास्त्र में गहरे तक दखल रखना यह तो बताता है कि अपराधी भी बुद्धिजीवी होते हैं और रहस्यों के प्रति उन में भी सहज जिज्ञासा होती है.
शोभराज ने कितनी हत्याएं कीं, यह शायद अब पता चले. क्योंकि लिखने और खुद की जिंदगी पर लिखवाने की अपनी आदत से वह बाज आएगा, ऐसा लगता नहीं. कई नामी मीडिया संस्थानों को उस ने मुंहमांगी कीमत पर अपनी जिंदगी के राज बेचे.
अपनी आधी जिंदगी के लगभग शोभराज ने जेलों में गुजारी. वह जिस जेल में भी रहा, पूरी शानोशौकत से रहा. दिल्ली की तिहाड़ जेल में उस ने सब से लंबा वक्त गुजारा. लेकिन यहां भी वह ज्यादा टिका नहीं और जेल प्रशासन को धता बताते हुए 1986 में फरार हो गया.
यह वह वक्त था, जब थाईलैंड की सरकार भारत पर शोभराज के प्रत्यर्पण के लिए लगातार दबाब बना रही थी. तिहाड़ से शोभराज के छूमंतर होने के रोचक किस्से को उस की जिंदगी पर बनी एक फिल्म ‘मैं और चार्ल्स’ में दिखाया गया है.