उस दिन शाम को सुखविंदर सिंह कुलवंत सिंह के घर पहुंचा तो अजीब नजारा देखने को मिला. मकान का दरवाजा खुला था लेकिन अंदर किसी प्रकार की रोशनी नहीं थी. सुखविंदर हैरत में पड़ गया कि आखिर ऐसा क्यों है. वह दरवाजे से अंदर घुसा तो अंधेरे में  उसे रूपिंदर कौर चहलकदमी करती दिखाई दी, वह काफी बेचैन दिख रही थी. रूपिंदर कुलवंत सिंह की पत्नी थी.

रूपिंदर ने दरवाजे पर खड़े सुखविंदर को देख भी लिया था. इस के बावजूद उस ने चहलकदमी करनी बंद नहीं की. न जाने वह किस उधेड़बुन में लगी थी, जिस कारण टहलती रही.

सुखविंदर बराबर कुलवंत के घर आताजाता रहता था. कौन सी चीज कहां है, वह बखूबी जानता था. उस ने दरवाजे के पास लगे स्विच बोर्ड से स्विच औन कर दिया. तुरंत ही कमरा रोशनी से जगमगा उठा.

सुखविंदर रूपिंदर कौर के चेहरे पर नजरें जमा कर बोला, ‘‘भाभी, बडे़बुजुर्ग कहते हैं कि जब दिनरात मिल रहे हों, तब घर में अंधेरा नहीं रखना चाहिए, अपशकुन होता है.’’

रूपिंदर के मुंह से आह निकली, ‘‘जिस के जीवन में अंधेरा हो, उस के घर में अंधेरा क्या और शकुनअपशकुन क्या.’’

‘‘आज बड़ी दिलजली बातें कर रही हो. पूरा मोहल्ला जगमगा रहा है और तुम अंधेरा किए टहल रही हो. बात क्या है भाभी?’’ वह बोला.

‘‘कुछ नहीं बस यूं ही.’’ रूपिंदर कौर ने जवाब दिया.

‘‘टालो मत,’’ सुखविंदर ने रूपिंदर का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बताओ न भाभी, क्या बात है?’’

प्रेम व अपनत्व से बोले गए शब्द बहुत गहरा असर करते हैं. रूपिंदर कौर पर भी असर हुआ. उस की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई. सुखविंदर विवाहित था, इसलिए उसे औरतों का मन पढ़ना और समझना आता था.

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