मैंने मोबाइल में समय देखा. 6 बजने में 5 मिनट बाकी थे. सुधा को अब तक आ जाना चाहिए था, वह समय की बहुत पाबंद थी. मेरी नजर दरवाजे पर टिकी थी. डेढ़, पौने 2 साल से यही क्रम चला आ रहा था. इस का क्या परिणाम होगा, मैं भी नहीं जानता था. फिर भी मैं सावधान रहता था. जो भी हो रहा था, वह उचित नहीं था, यह जानते हुए भी मैं खुद को रोक नहीं पा रहा था.
माना कि वह मुझ पर मुग्ध थी, पर शायद मैं कतई नहीं था. मेरा हराभरा, भरापूरा संसार था. सुंदर, सुशील, गृहस्थ पत्नी, 2 बच्चे, प्रतिष्ठित रौबदाब वाली नौकरी.
15 साल के वैवाहिक जीवन में पत्नी से कभी किसी तरह की कोई किचकिच नहीं. यह अलग बात है कि कभी पल, 2 पल के लिए किसी बात पर तूतूमैंमैं हो गई हो. फिर भी अंदर से व्यवहारिक गृहस्थ कट रहा था कि अभी समय है, यहीं रुक जाओ, वापस लौट आओ.
वैसे सुधा के साथ मेरे जो संबंध थे, वे इतने छिछोरे नहीं थे कि एक झटके में तोड़े जा सकें या अलग हुआ जा सके. सब से बड़ी बात यह थी कि हम ने कभी मर्यादा लांघने की कोशिश नहीं की. हमारे रिश्ते पूरी तरह स्वस्थ और समझदारी भरे थे. कुछ हद तक मेरे बातचीत करने के लहजे और कलात्मक स्वभाव की वजह से वह मेरी ओर आकर्षित हुई थी. इस में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था.
आप से 10 साल छोटी युवती आप से जबरदस्त रूप से प्रभावित हो और आप संन्यासी जैसा व्यवहार करें, यह संभव नहीं है. मैं ने भी खुद को काबू में रखने की कोशिश की थी, पर मेरी यह कोशिश बनावटी थी, क्योंकि शायद मैं उस से दूर नहीं रह सकता था. कोशिश की ही वजह से आकर्षण घटने के बजाय बढ़ता जा रहा था. लगता था कि यह छूटेगा नहीं. उस की नौसिखिया लेखकों जैसी कहानियां को मैं अस्वीकृत कर देता, वह शरमाती और निखालिस हंसी हंस देती. फिर फटी आंखों से मुझे देखती और अपनी कहानी अपने ही हाथों से फाड़ कर कहती, ‘‘दूसरी लिख कर लाऊंगी.’’